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________________ २८१ चतुर्थ खण्ड शुभ कर्मप्रकृति का रस अधिक बंधता है और अशुभ कर्मप्रकृति का रस मन्द । कषाय जितना तीव्र, अशुभ कर्मप्रकृति का रसबन्ध भी उतना ही अधिक बंधता है और शुभ कर्मप्रकृति का रसबन्ध उतना ही कम बँधता है; और कषाय जितना मन्द, शुभ प्रकृति का रसबन्ध भी उतना ही अधिक तथा अशुभ कर्मप्रकृति रसबन्ध उतना ही कम बँधता है । मतलब कि तीव्र कषाय से अशुभ कर्मप्रकृति में तीव्र रस और शुभ कर्मप्रकृति में मन्द रस आता है । इसके विपरीत जब कषाय मन्द होते हैं तब शुभ कर्मप्रकृति में तीव्र रस और अशुभ कर्मप्रकृति में मन्दरस आता है । शुभ कर्म का उत्कृष्ट रसबन्ध शुभ है। जब जीव कर्म पुद्गलों को ग्रहण करता है तब उसी समय (ग्रहण होते ही) उन कार्मिक पुद्गलों में विचित्र प्रकार का जोश आ जाता है और जीव के कषायरूप परिणामों का निमित्त पा कर उनमें अनन्तगुना रस उत्पन्न हो जाता है । यही रस जीव के गुणों का घात आदि करता है । जीव को भाँति-भाँति के फल चखाने का काम यह रस ही करता है। जीव की बडी से बडी उपाधि यह रस ही है । शुभ रस से सुख मिलता है और अशुभ रस से दुःखः । जिस प्रकार सूखा घास नीरस होता है, परन्तु गाय, भैंस, बकरी आदि के पेट में जाकर वह धरूप रस में परिणत होता है तथा उस रस में (दूध में) चिकनाहट (कमोवेश) मालूम होती है अर्थात् सूखा घास खा करके भैंस ............ १. परन्तु सुखोपभोग में अनासक्तभाव रखना बहुत कठिन जानकर वैरागी भर्तृहरि अपने वैराग्यशतक में कह गए हैं कि 'विपाकः पुण्यानां जनयति भयं मे विमृशतः ।' अर्थात्-पुण्य का विपाक, विचार करने पर, मुझे भय उत्पन्न करता है । श्लोक के इस दूसरे वरण के बाद उत्तरार्ध में वे कहते हैं कि ___'महद्भिः पुण्यौधैश्चिरपरिगृहीताश्च विषया ।। महान्तो जायन्ते व्यसनमिव दातुं विषयिणाम् ॥' अर्थात्-महान् पुण्यसमूहों के द्वारा चिरकाल से मिले हुए विषयभोग विषयी मनुष्यों को दुःख देने के लिये ही मानो फैलते जाते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002971
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorNyayavijay
Author
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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