________________
२८२
जैनदर्शन गाढ़ा दूध देती है और उसमें चिकनाहट भी अधिक होती है, गाय का दूध कम गाढा और कम चिकना होता है और बकरी का दूध तो उससे भी कम गाढ़ और कम चिकना होता है--इस तरह एक ही प्रकार का घास भिन्नभिन्न पशुओं के पेट में जाकर भिन्न-भिन्न दूधरूप रस में परिणत होता है; उसी प्रकार एक ही प्रकार के कर्मवर्गणा के पुद्गल भिन्न-भिन्न जीवों के भिन्न भिन्न कषायरूप परिणामों का निमित्त पा कर भिन्न-भिन्न रसवाले बनते हैं । इसका नाम रसबन्ध अथवा अनुभावबन्ध अथवा अनुभाग बन्ध है । जिस प्रकार अनेक प्रकार के दूध में से किसी में अधिक शक्ति होती है और किसी में कम, उसी प्रकार शुभ अथवा अशुभ कर्मप्रकृतियों का अनुभाव(रस) तीव्र भी होता है और मन्द भी होता है ।
महर्षि उमास्वाति के तत्त्वार्थसूत्र के छठे अध्याय का तीसरा-चौथा सूत्र है; 'शुभः पुण्यस्य', 'अशुभः पापस्य' अर्थात् कायिक, वाचिक, और मानसिक क्रियारूप योग यदि शुभ हों तो शुभ कर्म अर्थात् पुण्य कर्म का और यदि अशुभ हों तो अशुभ कर्म अर्थात् पाप कर्म का बन्ध होता है । परन्तु शुभ योग के समय भी पापप्रकृतियाँ का और अशुभ योग के समय भी पुण्यप्रकृतियों का भी बन्ध होता है ऐसा कर्मशास्त्रों में उल्लेख है । अतः उपर्युक्त दो सूत्रों का तात्पर्य यह बताया जाता है कि शुभ योग की सबलता के समय (जब संक्लेश-कषायपरिणाम मन्द होते है) पुण्यप्रकृतियों के अनुभाव (रस) की मात्रा अधिक बँधती है और पापप्रकृतियों के अनुभाव की मात्रा कम । इसके विपरीत अशुभ योग की प्रबलता के समय (जब संक्लेशकषायपरिणाम तीव्र होते हैं) पापप्रकृतियों का अनुभावबन्ध अधिक और पुण्यप्रकृतियों का अनुभावबन्ध अल्प होता है । इस तरह, शुभ योग के कारण पुण्य कर्म के रस की और अशुभ योग के कारण पाप कर्म के रस की जो अधिक मात्रा होती है उसे मुख्य समझकर उपर्युक्त सूत्रों में शुभ योग को पुण्य का और अशुभ योग को पाप बन्ध का कारण कहा है । इस प्रकार उक्त सूत्रों का विधान अनुभाव-बन्ध की अधिक मात्रा की अपेक्षा से समझने का है । यहाँ पर शुभयोगकालीन पापकर्म के रस की और अशुभयोगकालीन पुण्यकर्म के रस की हीनमात्रा विवक्षित नहीं है । इस प्रकार प्रधानता को
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org