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चतुर्थ खण्ड लक्ष में रख कर यह कहा गया है 'प्राधान्येन हि व्यपदेशा भवन्ति ।' ___ कर्मों की मुख्य दस अवस्थाएँ इस प्रकार बतलाई गई हैं
(१) बन्ध-कर्मयोग्य वर्गणा के पुद्गलों के साथ आत्मा का नीरक्षीर की भाँति अथवा लोहा और तदन्त अग्नि की भाँति एक-दूसरे में मिल जाना यह बन्ध कहा जाता है । कर्म के इन सूक्ष्म पुद्गलस्कन्धों का जो ग्रहण होता है वह आत्मा के समग्र प्रदेशों द्वारा होता है, न कि किसी एक ही दिशा में रहे हुए आत्मा के प्रदेशों द्वारा । सब संसारी जीवों को एकजैसा कर्मबन्ध नहीं होता, क्योंकि सब का मानसिक-वाचिक-शारीरिक योग (व्यापार) समान नहीं होता । इसीलिये योग के तरतमभाव के अनुसार प्रदेशबन्ध में ही तरतमभाव आता है। प्रत्येक कर्म के अनन्त स्कन्ध आत्मा के सम्पूर्ण प्रदेशों के साथ बँधते हैं । जीव जिस क्षेत्र में रहता है उसी क्षेत्र में विद्यमान कर्मवर्गणा के पुद्गलस्कन्ध बँधते हैं, न कि बाहर के क्षेत्र में रहे हुए पुद्गलस्कन्ध । आत्मा के साथ बँधनेवाला प्रत्येक कर्मस्कन्ध अनन्तानन्त परमाणुओं का बना हुआ होता है ।
कर्म की पहली अवस्था बन्ध है । इसके बिना दूसरी कोई भी अवस्था शक्य नहीं है । बन्ध के प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश इस प्रकार ये चार भेद पीछे हम देख चुके हैं ।
(२-३) उद्वर्तना, अपवर्तना- कर्म के स्थिति एवं रस की अभिवृद्धि को उद्वर्तना और उनके कम होने को अपवर्तना कहते हैं । अशुभ कर्म का बन्ध होने के बाद यदि जीव पीछे अच्छे अर्थात् शुभ कार्य करे तो पहले के बँधे हुए बुरे कर्म की स्थिति एवं रस कम हो सकते हैं । इस पर से यही बोधपाठ मिलता है कि यदि किसी मनुष्य ने अज्ञान अथवा मोहवश दुर्व्यवहार करके अपना जीवन कलुषित बनाया हो, परन्तु समझ में आने के बाद अपना चारित्र सुधारकर वह यदि सदाचारी और सत्कर्मा बने तो उसके सच्चरित के पवित्र भावोल्लास के बल से उसके पहले बुरे कर्मों की स्थिति तथा कटुता में कमी अवश्य हो सकती है । गिरा हुआ अवश्य ऊपर उठ सकता है । घोर नरक में ले जानेवाले कर्मदलिक का जिन्होंने बन्ध किया
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