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जैनदर्शन
है ऐसे महापापी भी जब वापस लौटे हैं, जग गए हैं और अपने अविचलित आत्मबल से कल्याण पथ पर आरूढ हुए हैं तब उनके उस तपोबल के प्रभाव से घोरातिघोर कर्म विध्वस्त हो गए हैं और वे महात्मा बनकर परमात्मपद प्राप्त करने में समर्थ हुए हैं । आत्मा प्रमाद-निद्रा में पड़ी हुई होने पर भी वह सोए हुए सिंह जैसी है। वह जब जगती है -वस्तुतः अपनी निद्रा को त्याग कर खडी होती है और अपने आत्मवीर्य को प्रकट करती है तब उतरोत्तर प्रखर होनेवाले उसके महान् आत्मबल के आगे महामारक मोहमातङ्ग पराजित हो जाता है और अन्त में पूर्णरूप से हत-प्रहत होकर विनष्ट हो जाता है।
यह देखा हमने अपवर्तन के बारे में । इसी प्रकार उद्वर्तना के बारे में भी समझा जा सकता है। जैसे कि, किसी जीव ने अल्प स्थिति के अशुभ कर्म का यदि बन्ध किया हो परन्तु बाद में वह और अधिक बुरे काम करे तथा उसके आत्मपरिणाम अधिक कलुषित बनें तो पहले बँधे हुए उसके अशुभ कर्म की स्थिति एवं रस, उसके बुरे भावों के प्रभावों से बढ़ सकते हैं । इसी प्रकार अशुभ परिणामों के बल से शुभ कर्मों के स्थिति एवं रस कम हो सकते हैं । इस अपवर्तना-उद्वर्तना के कारण कोई कर्म जल्दी से फल देता है तो कोई देर से । कोई कर्म मन्दफलदायी होता है तो कोई तीव्रफलदायी।
(४) सत्ता -कर्म का बन्ध होने के बाद तुरन्त ही वह फल न देकर कुछ समय तक सत्ता रूप से रहता है- यह बात पहले कही जा चुकी है । जितने समय तक वह सत्तारूप से रहता है उतने समय को 'अबाधाकाल' कहते हैं । यह काल स्वाभाविक क्रम से अथवा अपवर्तना द्वारा शीघ्र पूरा होने पर कर्म अपना फल देने के लिये तत्पर होता है । इसे कर्म का
(५) उदय कहते हैं । कर्म का नियत समय पर फल देने के लिये
१. ब्रह्म-स्त्री-भ्रूण-गो-घातपातकानरकातिथेः ॥
दृढप्रहारिप्रभृतेर्योगो हस्तावलम्बनम् ॥ हेमचन्द्र, योगशास्त्र १, १२. २. अर्थात्--ब्राह्मण, स्त्री, भ्रूण और गाय इन सबकी हत्या करने से नरक के अतिथि
बने हुए दृढ़प्रहारी और उसके जैसे अन्य महापापी भी योग की शरण लेकर पार उतर गए हैं।
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