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चतुर्थ खण्ड
२८५ तत्पर होना वह उदय है और नियत समय से पूर्व ही फल देने के लिये तत्पर होना उसे-----
(६) उदीरणा कहते हैं । 'अबाधाकाल' पूर्ण होने पर उदय में आए हुए कर्म का नियतकालीन क्रमिक उदय वह उदय है और उस उदयमान कर्म के जो दलिक पीछे से उदय में आने वाले हैं उन्हें विशेष प्रयत्न से खींचकर उदय प्राप्त दलिकों के साथ मिला देने और भोगने को 'उदीरणा' कहते हैं। जिस प्रकार आम की मौसम में आम को जल्दी पकाने के लिये पेड़ पर से तोड़ कर घास आदि में दबा देते हैं जिससे वह पेड की अपेक्षा जल्दी ही पक जाय, इसी प्रकार कर्म का विपाक कभी-कभी नियत समय से पूर्व भी हो सकता है । इसे उदीरणा कहते हैं । इसके लिये 'अपवर्तना' क्रिया द्वारा प्रथम कर्म की स्थिति कम कर दी जाती है । स्थिति कम हो जाने पर कर्म नियत समय से पूर्व उदय में आ जाता है । जब कोई मनुष्य आयुष्य पूर्णरूप से भुगतने से पूर्व ही असमय में मर जाता है तब वैसी मृत्यु को लोक 'अकालमृत्यु' कहते हैं । ऐसा होने का कारण आयुष्य कर्म की उदीरणा हो जाना ही है, और उदीरणा अपवर्तना से होती है । अमुक अपवाद के सिवाय कर्मों के उदय और उदीरणा सर्वदा चालू रहते हैं । उदित कर्म की ही (उदित कर्मवर्ग के अनुदित कर्मपुद्गलों की ही) उदीरणा होती है और उदय होने पर उदीरणा प्रायः अवश्य होती है ।।
(७) संक्रमण-एक कर्मप्रकृति के अन्य सजातीय कर्म-प्रकृतिरूप हो जाने को 'संक्रमण' क्रिया कहते हैं । संक्रमण कर्म के मूल भेदों में नहीं होता, अर्थात् पहले गिनाए गए कर्मों के मूल ज्ञानावरण, दर्शनावरण, आदि आठ भेदों मे से एक कर्म अन्यकर्मरूप से नहीं हो सकता, किन्तु एक कर्म के अवान्तर भेदों में से कोई एक भेद स्वसजातीय अन्य भेदरूप बन सकता है; जैसे कि सातवेदनीय असातावेदनीय और असातावेदनीय सातवेदनीयरूप
१. कर्म बद्ध होने के पश्चात् जितने समय तक बाधा (उपाधि) नहीं पहुँचाता अर्थात् उदय
में नहीं आता-शुभाशुभ फल चखाने के लिये तत्पर नहीं होता इतने समय को 'अबाधाकाल' कहते हैं । जिस कर्म का जितना अबाधाकाल हो वह पूर्ण होने के बाद ही वह कर्म अपना फल देना शुरू करता है ।
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