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जैनदर्शन
बन सकता है । यद्यपि संक्रमण सजातीय प्रकृतियों में ही हो सकता है, किन्तु इसमें भी अपवाद है; जैसे कि आयुष्य कर्म के चार प्रकारों का परस्पर संक्रमण नहीं होता । नरकादि के आयुष्यों में से जिस आयुष्य का बन्ध किया हो वह उससे भिन्न गति के आयुष्य रूप से नहीं बन सकता। इसी प्रकार दर्शनमोहनीय कर्म और चारित्रमोहनीय कर्म एक-दूसरे में संक्रान्त नहीं हो सकते।
(८) निधत्ति- यह कर्मबन्ध की ऐसी कठोर अवस्था है जो उदीरणा, तथा संक्रमण की पहुंच से बाहर है। परन्तु इस अवस्थ में उद्धर्तन-अपवर्तन हो सकते हैं। - (९) निकाचना-यह कर्म की कठोर से कठोर अवस्था है । इसमें उदीरणा, संक्रमण, उद्धर्तन या अपवर्तन कोई भी क्रिया नहीं चल सकती । यह निकाचित कर्म, जब उसका समय पकने पर उदय में आता है तब, प्रायः अवश्य भोगना पड़ता है ।
(१०) उपशमन-अर्थात् उदित कर्म को उपशान्त करना । कर्म कोउदित कर्म को भस्मच्छन अग्नि की भाँति यदि दबा दिया जाय तो वह उपशम है।
[१२] __ कोई यह कहे कि 'आत्मा कोई स्वतन्त्र तत्त्व नहीं है । वह तो पंच भूतों के मिश्रण से पैदा होनेवाली एक शक्ति है । अलग-अलग भूतों में जो गुण दिखाई नहीं देता वह उनके मिश्रण में दिखाई देता है। जैसे मद्य में जो मादकता है वह मद्य के पृथक्-पृथक् घटकों में कहाँ है ?' तो उसका यह कहना ठीक नहीं है । मद्य के पृथक्-पृथक् अंगो में भी मादकता है, पर वह अल्प है। भोजन का भी नशा होता है, निद्रा भी एक नशा है, पर अल्प है । शराब जैसे मिश्रण से उत्तेजित नशा होता है । असत् का उत्पाद नहीं होता, यह मूल सिद्धान्त है । जब प्रत्येक भूत में चेतना है ही नहीं तब उनके मिश्रण से चेतनरूप आत्मतत्त्व कैसे पैदा हो सकता है ? जब कोई द्रव्य पैदा नहीं होता तब कोई गुण भी पैदा नहीं होता, क्योंकि गुणों का
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