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चतुर्थ खण्ड
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समुदाय ही तो द्रव्य है । गुणों के पर्याय बदल सकते हैं, बदलते है, पर नया गुण नहीं आता ।
कोई भी भूत द्रव्य क्या कभी यह अनुभव कर सकता है कि 'मैं हूँ' ? इस अनुभव के टुकड़े-टुकड़े क्या हो सकते हैं ? अर्थात् 'मैं हूँ' इस अनुभव का एक टुकड़ा पृथ्वी अनुभव करे, एक टुकड़ा जल अनुभव करे, एक टुकड़ा अग्नि, वायु, आकाश अनुभव करे इस तरह अनुभव के टुकड़े क्या सम्भव हैं ? नहीं । तो यह सिद्ध हुआ कि 'मैं हूँ' यह अनुभव कोई एक द्रव्य ही करता है । तब पाँच भूतों में से वह कौनसा एक भूत है जो अनुभव करता है कि 'मैं हूँ' ? कहना पड़ेगा कि कोई नहीं अतः यह सिद्ध होता है कि भूतों से अतिरिक्त कोई द्रव्य ऐसा है जो यह अनुभव करता है । जब मैं हूँ' ऐसा अनुभव करनेवाला एक स्वतन्त्र द्रव्य सिद्ध होता है तब उसका न तो उत्पाद हो सकता है न नाश; क्योंकि असत् से सत् बन नहीं सकता और सत् का नाश नहीं हो सकता । इस स्वतन्त्र द्रव्य का नाम ही आत्मा या जीव है ।
हम देखते हैं कि सब प्राणी एक जैसे नहीं हैं । इस विषमता का कारण तो कोई होना ही चाहिए । अपने मूल रूप में सब जीव समान हैं, इसलिये जीव से भिन्न कोई पदार्थ मिले बिना उनमें विषमता नहीं आ सकती । अतः जीव से भिन्न जो पदार्थ जीव के साथ लगा हुआ है वही बन्धनरूप 'कर्म' है । इस तरह निश्चित तर्क पर आश्रित अनुमान से आत्मसंयुक्त बंधनरूप 'कर्म' का होना सिद्ध होता है ।
आत्मा अमूर्त है, इसलिये उस पर मूर्त 'कर्म' का क्या प्रभाव पड़ा, क्या नहीं पड़ा यह दिख नहीं सकता, किन्तु अमूर्त के गुणों का हमें स्वसंवेदन प्रत्यक्ष तो है ही । उन गुणों पर भौतिक (कर्म) के प्रभाव का पता यदि लग जाय तब यह समझने में कोई बाधा नहीं रहेगी कि मूर्त द्रव्य का अमूर्त के गुणों पर प्रभाव पड़ता है । मद्यपान से अमूर्त चेतना पर प्रभाव पड़ता है यह स्पष्ट है । इसी तरह क्रोध तथा स्मृति आदि जो अमूर्त आत्मा के गुण या पर्याय हैं उन पर मूर्त द्रव्य का असर पड़ता है । किसी मूर्त पदार्थ को देखकर स्मृति पैदा हो जाती है या क्रोध आदि भाव पैदा हो जाते हैं
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