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________________ २८८ जैनदर्शन इससे सिद्ध होता है कि आत्मिक गुणों पर भौतिक पदार्थ प्रभाव डालते हैं । तब 'कर्म' भी आत्मा पर प्रभाव डाल सकते हैं यह सिद्ध होता है । यह संसारवर्ती जीव अपने कर्म के अनुसार भिन्न भिन्न योनियों में जाता है-भिन्न-भिन्न शरीर धारण करता है । जैसे एक मनुष्य जीर्ण मकान को छोड़कर अच्छे मकान में रहने जाता है अथवा अच्छे मकान को छोड़कर उसे खराब मकान में रहने के लिये जाना पड़ता है, उसी तरह जीव अच्छे कर्म के अनुसार अच्छी गति में जाता है और बुरे कर्म के अनुसार उसे बुरी गति में जाना पड़ता है। इसलिये, जैसे जौ के बीज से चावल पैदा नहीं हो सकता वैसे मनुष्य की आत्मा पशु या पशु की आत्मा मनुष्य कैसे हो सकता हैं यह प्रश्न या तर्क भी निरस्त हो जाता है । जैसे जो से चावल पैदा नहीं होता वैसे मनुष्य से पशु पैदा नहीं होता, किन्तु मनुष्य की आत्मा मनुष्यशरीर से निकलकर पशुगति में जाय-पशुयोनि में जन्म ले-पशु बने इसमें क्या आपत्ति है ? एक शरीर को छोड़कर अन्य शरीर धारण करना क्या है, मानो एक कोट को उतार कर दूसरा पहनना। जौ (अनाज) भी अपना जौपन छोड़कर मिट्टी जैसे विभिन्न रूपान्तर प्राप्त करता है तब वह किसी भी धान्य के रूप में परिणत हो सकता है । देव या स्वर्ग गति कहाँ है इसके बारे में जरा जान लें । मान लीजिए कि किसी मनुष्य ने ऊँचे से ऊँचे भोगों का त्याग कर दिया, इस लोक में जो भी समृद्धि मिल सकती है वह उसने लोक-कल्याण में लगा दी, तब उसका बढा हुआ फल यहाँ तो मिल नहीं सकता, क्योंकि यहाँ मिलने लायक ऊँची से ऊँची सम्पत्ति का तो उसने त्याग कर दिया है । अतः उससे ज्यादा फल मिलने के लिये तो कोई दूसरा लोक ही होना चाहिए । जो ऐसा लोक होगा वही देवगति है । बीज की अपेक्षा वृक्ष महान ही होता है। जो पुण्य-फल यहाँ मिल नहीं सकता उसके लिये जैसे स्वर्ग की जरूरत है, उसी तरह जो पाप-फल यहाँ मिल नहीं सकता उसके लिये नरक की जरूरत है । इस प्रकार नरक गति के लिये भी कहा जा सकता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002971
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorNyayavijay
Author
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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