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चतुर्थ खण्ड
२८९
अशुभ परिणति नरक का दुर्गति का मार्ग है और शुभ परिणति स्वर्ग या सद्गति का मार्ग है, किन्तु मोक्ष का मार्ग शुद्ध परिणति है । शुभ परिणति में शुभ भावना और दूसरों की भलाई तो होती है पर उसमें मोह रहता है और किसी-न-किसी तरह की स्वार्थवासना रहती है, जबकि शुद्ध परिणति में केवल विश्वहित की दृष्टि से कर्तव्यभावना रहती है, विकासगामी निर्मोहिता से समुन्नत विश्ववात्सल्य रहता है । इसलिये आत्मा की वैसी निर्मल शुभ्र अवस्था सीधी मोक्षप्रद बनती है । शुभ और शुद्ध परिणति के कार्यों में बाहर की दृष्टि से विशेष अन्तर नहीं दिखाई देता, किन्तु उसके मूल में आशा और निःस्पृहता का, भौतिक स्पृहा और विशुद्ध आत्मनिष्ठा का बडा ही अन्तर रहता है । आशा - स्पृहा - लालसामूलक शुभ परिणति से किया जानेवाला कार्य यदि शुद्ध परिणति से किया जाय तो वीतरागता के कारण कोई अनिष्ट प्रतिक्रिया नहीं होती उससे अनन्त शान्ति प्राप्त होती है ।
जीव का प्रत्येक जन्म उसके पूर्वजन्म की अपेक्षा से पुनर्जन्म ही है । उसका कोई जन्म ऐसा नहीं है जिसके पहले जन्म न हो । उसके जन्मों की ( भिन्न-भिन्न देह के धारण की) परम्परा सर्वदा से अर्थात् अनादिकाल से चली आ रही है ऐसा मानना युक्तिसंगत प्रतीत होता है । आत्मा के भूतकाल के किसी जन्म को सर्वप्रथम जन्म मान लें तो ऐसा मानना पड़ेगा कि आत्मा उस जन्म तक 'अजन्मा' था और बाद में उसका सर्वप्रथम और नया जन्म शुरू हुआ । ऐसा माना जाय तो अजन्मा अर्थात् शुद्ध आत्मा के लिये भी कभी जन्म धारण करना सम्भवित हो सकता है ऐसा मानना पड़ेगा और यदि ऐसा मानना पड़े तो भविष्य में, मुक्ति प्राप्त करने के बाद भी, किसी समय पुनः जन्म के पाश में फँसने की सम्भावना रहेगी । इससे पूर्ण स्थिर एवं पूर्ण मुक्ति का अस्तित्व ही उड़ जायेगा । आत्मा अमुक समय तक बिना जन्म की (बिना शरीरधारण किये) रहकर पुनः कभी जन्म धारण करती है ऐसा मानना युक्ति-युक्त नहीं है । देहधारण की परम्परा यदि चले तो वह अखण्ड रूप से ही चले -बीच में कभी भी टूटे बिना अविच्छिन्न रूप से ही चले और एक बार यदि देह का संसर्ग छूट जाय तो वह सर्वदा के लिये छूट जाय । इस तरह मानना ही संगत प्रतीत होता है ।
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