SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 405
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३७४ जैनदर्शन बनाने में व्यापक ज्ञान की आवश्यकता है और यह तभी सम्भव है जब हमारी दृष्टि व्यापक हो । इसी व्यापक दृष्टि को जैनदर्शन में 'अनेकान्तदृष्टि' कहते हैं और यह वस्तुतः संस्कारी जीवन का एक समर्थ अंग है । यह दृष्टि व्यावहारिक भी है और आध्यात्मिक भी है । इसे व्यवहार-जगत् का विचक्षण पुरुष भी समझ सकता है और आध्यात्मिक मार्ग का प्रवासी भी समझ सकता है। इस विशाल दृष्टि के निर्मलजल से अन्तर्दृष्टि का प्रक्षालन होने पर रागद्वेष शान्त होने लगते हैं और इसके परिणामस्वरूप चित्त की अहिंसात्मक शद्धि होने पर आत्म-समाधि का मार्ग सुलभ बनता है। विशाल दृष्टि के योग से उदारभाव प्रकट होता है । यह एक-दो उदाहरण के साथ तनिक देखें । एक सम्प्रदाय कहता है कि जगत्कर्ता ईश्वर है तो दूसरा कहता है कि जगत्कर्ता ईश्वर नहीं है अथवा ईश्वर जगत्कर्ता नहीं है । निस्सन्देह इन दोनों में से कोई एक असत्य है । परन्तु समझने की बात तो यह है कि इन दोनो वादों का लक्ष्य क्या है ? ईश्वरकर्तृत्ववादी कहता है कि यदि तुम पाप करोगे तो ईश्वर तुम्हें दण्ड देगा, नरक में भेजेगा और यदि पुण्य करोगे तो वह खुश होगा, तुम्हें सुख देगा, स्वर्ग में भेजेगा । ईश्वरकर्तृत्व का विरोध करनेवाले जैन आदि कहते हैं कि यदि तुम पाप करोगे तो अशुभ कर्म का बन्ध होगा, खाए हुए अपथ्य भोजन की भाँति इसका (अशुभ कर्म का) दुःखरूप फल तुम्हें मिलेगा, तुम्हें दुर्गति में जाना पड़ेगा; परन्तु यदि तुम पुण्य करोगे तो तुम्हें शुभ कर्म का उपार्जन होगा, खाए हुए पथ्य भोजन की तरह यह (शुभ कर्म) तुम्हें सुखदायी होगा । एक धर्म-सम्प्रदाय मनुष्यों को ईश्वरकर्तृत्ववादी बनाकर जो काम करना चाहता है वही काम दूसरा धर्म सम्प्रदाय उन्हें ईश्वरकर्तृत्वमत का विरोधी बनाकर कराना चाहता है । इसमें देखना तो यह चाहिए कि धर्म में (धर्म के मुद्दे में) भिन्नता आई ? नहीं । अच्छे काम का अच्छा और बुरे का बुरा परिणाम मिलने के बारे में सभी का एकमत ही है । तब भिन्नता फल की-मार्गसरणी की विचारणा में आई । यह भिन्नता ऐसे विशेष महत्त्व की क्यों गिनी जानी चाहिये कि विरोधजनक के रूप में परिणत हो ? विरोध तो वहाँ हो सकता है जहाँ दोनों के उद्देश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002971
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorNyayavijay
Author
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy