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________________ पंचम खण्ड ३७५ 1 एक-दूसरे से विरुद्ध हों, परन्तु यहाँ पर तो दोनों का उद्देश एक ही है । ईश्वरकर्तृत्ववाद को यदि वैज्ञानिक दृष्टि से अतथ्य मानें तो भी वह अधर्म (अधर्मप्रेरक) तो नहीं कहा जा सकता । बुद्धि की अपेक्षा जिनकी भावुकता सविशेष है उन्हें ईश्वरकर्तृत्ववाद अधिक प्रिय और उपयोगी लगता है । वे ऐसा विचारने लगते हैं कि ईश्वर के भरोसे सब कुछ छोड़ देने से निश्चिन्त हुआ जा सकता है । इसके फलस्वरूप कर्तृत्व का अहंकार उत्पन्न हीं होता और पुण्य पाप का विचार सतत बना रहता है । अधिक बुद्धिमान् गिने जानेवाले लोग ईश्वरकर्तृत्व तर्कसिद्ध न होने से उसे नहीं मानते हैं । वे ऐसा मानते हैं कि ईश्वर को कर्ता न मानकर स्वावलम्बी बनना - आत्मबल एवं निज पुरुषार्थ को विकसित करने में जागरूक रहना आवश्यक है । ईश्वर को प्रसन्न करने की भोली भक्ति और कोशिश करने के बदले कर्तव्यसाधना में प्रगतिशील बनने के लिये प्रयत्नशील होना ही अधिक श्रेयस्कर है । उनका ऐसा मन्तव्य है कि हमारे पापों को क्षमा करनेवाला कोई नहीं है । अत: हमें स्वयं पापाचरण से डरते रहना चाहिए । इस पर से हम यह स्पष्ट देख सकता है कि जो इश्वरकर्तृत्व को मानते हैं वे उसे इसीलिये मानते हैं कि मनुष्य पाप न करे; और जो भी ईश्वरकर्तृत्व नहीं मानते उनकी मान्यता का सार भी यही है कि मनुष्य पाप न करें । दोनों का लक्ष्य एक है । प्राणी सदाचारी बनकर सुखी हो यही दोनों का उद्देश है । इसी प्रकार अद्वैतवाद, जिसका सिद्धान्त यह है कि जगत् का मूल तत्त्व एक ही है, कहता है कि द्वैतभावना संसार का कारण है अद्वैतभावनावाला ‘यह मेरा स्वार्थ और यह दूसरे का स्वार्थ' ऐसा संकुचित विचार नहीं रखता । वह तो जगत् के हित में अपना हित समझता है जिस वैयक्तिक स्वार्थ के लिये मनुष्य नानाविध पाप करते है वह वैयक्तिक स्वार्थ ही उसकी दृष्टि में नहीं रहेगा और इस तरह निष्पाप बनेगा । द्वैतवादी कहता है कि मूल तत्त्व दो हैं : मैं आत्मा हूँ और मेरे साथ लगा हुआ परतत्त्व जड़तत्त्व - पुद्गलतत्त्व मुझसे भिन्न है । 'मैं'; चेतनतत्त्व होने पर भी परतत्त्वजड़तत्त्व के सम्बन्ध के कारण दुर्वासनावश मूर्ख बनकर, अपने साधार्मिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002971
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorNyayavijay
Author
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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