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द्वितीय खण्ड
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अनिवार्यरूप से लगे हुए हैं, जिन्हें करना उसके लिये कर्त्तव्यरूप है अथवा जो करने आवश्यक हो जाते हैं, उनके बारे में पूरा ध्यान रखकर शास्त्रकारों ने इस व्रत से विवेकशाली सूचना करते हुए कहा है कि व्यर्थ पाप न करो । बस, इस व्रत का यही तात्पर्य है । परन्तु व्यर्थ पाप किसे कहते हैं ? इसकी स्पष्टता करना बहुत कठिन है । व्यर्थ ही किए गए अपने पाप को सहेतुक बताना क्या कुछ मुश्किल है ? प्रमादी एवं संघर्षपूर्ण जीवनयात्रा में इसका स्पष्ट विवेचन कैसे किया जा सकता है ? इसीलिये शास्त्रकारों ने स्थूल सूचनाओं द्वारा इस बारे में कुछ स्पष्टता करने का प्रयत्न किया है : वे कहते हैं
( १ ) पापोपदेश न देना
दुर्व्यसन में फँसा हुआ मनुष्य अपने दुर्व्यसन की तलब यदि दूसरे को लगाने का प्रयत्न करे तो वह अनर्थदण्ड पापोपदेश होगा । यदि मनुष्य अपना दुर्व्यसन छोड़ न सके तो भी उसकी प्रशंसा न करके उसे उसकी निन्दा ही करनी चाहिए । प्रशंसा करके पापाचरण का उपदेश देना, प्रचार करना यह अनर्थदण्ड अनर्थकारक है । परन्तु रसोई कैसे बनानी ?, खेती कैसे करनी ? गृहरचना कैसे करनी ? इत्यादि जीवनोपयोगी बातें दूसरों को सिखलानी पड़ती हैं और ऐसी बातें उदार हृदय से किसी भी जिज्ञासु को सिखलाने-समझाने में अनर्थदण्ड नहीं है । "उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्" ( उदारचरित मनुष्य के लिये जगत् कुटुम्बसदृश है ) अर्थात् किसी भी मनुष्य को उसकी भलाई के लिये भली बुद्धि से सांसारिक अथवा व्यावहारिक उपयोगी विषयों की समझ देना अनर्थदण्ड नहीं है । दूसरे की पापारम्भपूर्ण प्रवृत्ति में व्यर्थ ही अपनी चतुराई दिखलाना, निरर्थक उपदेश देना अथवा पंचायत करने के लिये निकल पड़ना बेशक अनर्थदण्ड ही है । (२) हिंसोपकरण न देना
इसका अभिप्राय यह कि चाकू, छुरी अथवा आग आदि दूसरे को पेन्सिल बनाने, शाक काटने अथवा रसोई बनाने के लिये देना अनर्थदण्ड नहीं है, परन्तु इनका दुरुपयोग करने के लिये देना अनर्थदण्ड है । सम्बन्धियों
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