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जैनदर्शन स्वाभाविक ही है । इसी प्रकार जिनमें बहुत अधर्म की संभावना हो वैसी अभोग्य अथवा अनुपभोग्य वस्तुओं का भी त्याग इस व्रत में आ जाता है, यह ख्याल में रखने योग्य है । शान्ति के पथ पर अग्रसर होने की अभिलाषा से ऐसा त्यागमार्ग ग्रहण किया जाता है, अत: पापमय अधम व्यापार-धन्धों का भी इस व्रत में त्याग किया जाता है । पुण्य-पाप का विवेक करनेवाले मनुष्य को यदि हानिकारक मार्गों में से किसी एक का चुनाव करना पड़े तो वह कम हानिकारक मार्ग ही ग्रहण करेगा ।।
मनुष्य की इच्छाओं पर किसी प्रकार का अंकुश नहीं है, इसी कारण इतनी बेकारी, इतनी विकट महंगाई और इतना दारुण दुःख-दारिद्र्य देश में फैला हुआ है । जहाँ एक ओर धन का ढेर व्यर्थ ही एकत्रित हो रहा है
और उद्भट भोगविलास में तथा अपने वैभव के प्रदर्शन में धनी लोग निरर्थक ही अपरिमित व्यय कर रहे हैं, वहाँ दूसरी ओर सामान्य जनता के विशाल प्रदेश में दरिद्रता की भयंकर आँधी छाई हुई है । इस घोर विषमता में जनता का शोषण होने से स्वतंत्र देश भी बरबाद हो जाता है । भोगोपभोग में उचित समता और संयमभाव यदि मनुष्य रखे तो जीवननिर्वाह के मार्ग की सब प्रकार की विषमता दूर हो जाय और एक प्रकार की विराट् समानता उत्पन्न होने से सबके जीवन में सुख-शान्ति का अनुभव हो । जनता सुखी बने और मानवता के पथ पर गतिमान् हो यही उद्देश इस व्रत के पीछे है । इसका झुकाव स्पष्टरूप से आध्यात्मिक कल्याण की ओर है । ८. अनर्थदण्डविरमण :
__ 'अनर्थ' का अर्थ है निरर्थक और 'दण्ड' का अर्थ है-पाप । इस प्रकार 'अनर्थदण्ड' का अर्थ हुआ निरर्थक (निष्प्रयोजन) पापाचरण । इसका त्याग अनर्थदण्डविरमण है । गृहस्थजीवन के साथ उद्योगी एवं आरम्भी हिंसा तो लगी हुई है, विरोधी-हिंसा भी उसे कभी-कभी करनी पड़ती है । कुटुम्ब के निर्वाह के लिये धनोपार्जन का कोई व्यवसाय और उचित परिग्रह भी उसके लिये आवश्यक है । इस प्रकार गृहस्थजीवन अत्यधिक आरम्भ से भरा हुआ है। फिर भी उपर्युक्त अणुव्रतों तथा दूसरे उपकारक व्रतों का पालन ही उसके लिये तरणोपाय है। गृहस्थजीवन के मार्ग में जो विविध आरम्भ-समारम्भ
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