________________
द्वितीय खण्ड
५३
परिग्रहपरिमाण यदि सामाजिक दृष्टि और सामाजिक सिद्धान्त बन जाय तो साम्यवाद बनाय समाजवाद का विवाद सरलता से शान्त हो सकता है । वस्तुतः यह धर्मव्रत अच्छी से अच्छी समाजव्यवस्था का सर्जन करनेवाला व्रत भी है ।
६. दिग्व्रत :
पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण ये चार दिशाएँ; ईशान, आग्नेय, नैर्ऋत्य, वायव्य ये चार विदिशाएँ तथा मस्तक के ऊपर की ऊर्ध्व दिशा और पैरों के नीचे की अधोदिशा इस प्रकार कुल दस दिशाएँ हैं । भिन्न-भिन्न प्रवृत्तिविषयक कार्यक्षेत्र को सीमित बनाने के लिये दिशाओं की मर्यादा बाँधना इस व्रत का अर्थ है । इस दिग्व्रत से मर्यादित क्षेत्र में जाने-आने की, व्यापार-धंधा करने की, ब्याह - शादी करने कराने की तथा मर्यादित क्षेत्र में उत्पन्न एवं पैदा की गई वस्तुओं के उपयोग आदि की प्रवृत्तियाँ नियमित हो जाती है । तृष्णा को अनियन्त्रित रूप से बढ़ती हुई रोकने का, व्रत का अभाव होने पर मर्यादित क्षेत्र से बाहर होनेवाली - फैलानेवाली हिंसादि प्रवृत्तियों से बचने का तथा पड़ौसी - धर्म के पालन को पुष्ट करने का इस व्रत का उद्देश है । वस्तुतः मनुष्य के बहुत से झंझट, बहुत से टण्टे-फिसाद इससे कम हो जाते हैं और विश्राम एवं शान्ति मिलने के साथ ही साथ जीवन का विकास साधने के लिये आवश्यक ऐसा अवकाश भी प्राप्त होता है । ७. भोगोपभोगपरिमाण :
एक ही बार जिनका उपयोग किया जाता है वे पदार्थ 'भोग' कहलाते हैं; जैसे कि अन्न, जल आदि । बार-बार उपयोग में आनेवाले वस्त्रादि पदार्थों को 'उपभोग' कहते हैं । इनका परिमाण करना आवश्यकता से अधिक भोगोपभोग से विरत होना इस व्रत का तात्पर्य है । इस व्रत से तृष्णा-लोलुपता पर कैसा अंकुश रहता है । यह तो इस व्रत के अनुभव पर से ही ज्ञात हो सकता है जिनकी बिलकुल आवश्यकता ही नहीं है प्रत्युत जीवन के लिये जो हानिकारक तथा आत्मा की दुर्गति करनेवाली है । वैसी मांस, मदिरा आदि अभक्ष्य और अपेय वस्तुओं का, निषेध इस व्रत में आ जाय यह
Jain Education International
--
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org