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जैनदर्शन ऐसे सन्तोषी सज्जन को सौभाग्यवश यदि अधिक धन मिले तो भी उसका उपयोग वह अपने परिग्रह की अभिवृद्धि में न करके लोक-कल्याण के कार्यों में ही करेगा।
जीवननिर्वाह के योग्य साधन जो प्राप्त कर चुका है और जिसे कमाने की चिन्ता नहीं है उसे धन्धे-रोजगार से छुट्टी मिल जाने पर अकर्मण्य न बनना चाहिए । अकर्मण्यता जीवन के लिये अत्यन्त हानिकारक है, अतः उसे अपनी शक्ति के अनुसार लोकसेवा में लग जाना चाहिए । ऐसा उद्यमी जीवन उसके लिये बाह्य और आभ्यन्तर दोनों प्रकार से कल्याणकारी तथा अपने और दूसरों के लिये हितावह सिद्ध होगा । जीवन-निर्वाह की चिन्ता न होने पर भी यदि वह अपना धन्धा-रोजगार चालू रखना चाहता हो तो प्रामाणिक रूप से व्यापार करके जो कुछ कमाए वह निश्चित किए हुए परिग्रहपरिमाण से तनिक भी अधिक न रखकर लोकहित के कार्यों में खर्च करे । अपने आप को एक अलग और स्वतन्त्र व्यक्ति न समझकर समाज के एक घटक अथवा अंश के रूप में ही अपने आप को समझना चाहिए और इसी दृष्टि से स्वपरहित के सत्कार्य करने चाहिए । परिग्रह का ममत्वभाव कम होते ही लोभवृत्ति पर कार्यसाधक अंकुश आ जाता है और द्रव्योपार्जन के कारण होनेवाली हिंसा आदि पापवृत्तियों का रस तीव्र न बनकर निर्मल होने लगता है। परिग्रह का परिमाण न करने से लोभ-तृष्णा का दबाव बढ़ने लगता है और इस तरह विशेष आरम्भ-समारम्भ एवं कषायों में बहने से आत्मा की अधोगति होती है । इसीलिये इस व्रत की आवश्यकता है । तृष्णा का यदि समुचित नियन्त्रण हो तो परिग्रह की उपाधि कम हो सकती है। यह उपाधि जितनी कम होती है उतनी अधिक आत्मा में शान्ति स्थापित होती है और परोपकार, सेवा, स्वाध्याय तथा भगवत्स्मरण का अधिकाधिक लाभ लिया जा सकता है । इस प्रकार धर्मसाधन द्वारा आत्मा की कल्याण सिद्धि होती है।
१. असन्तोषमविश्वासमारम्भं दुःखकारणम् ।
मत्वा मूर्छाफलं कुर्यात् परिग्रहनियन्त्रणम् ॥
-आ. हेमचन्द्र, योगशास्त्र २-१०६.
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