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द्वितीय खण्ड
५. परिग्रहपरिमाण :
इच्छा अपरिमित है, उसे नियमन में रखने का यह व्रत है । धनधान्य, सोना-चाँदी, जमीन-जायदाद, पशु-पक्षी आदि बाह्य पदार्थों का परिग्रह द्रव्यपरिग्रह और उन पदार्थों पर की मूर्च्छा अथात् मोहममत्व भावपरिग्रह कहलाता है । दोषरूप एवं बन्धनरूप इस भावपरिग्रह को शिथिल करने के लिये द्रव्यपरिग्रह का समुचित परिमाण करना आवश्यक है । जब एक मनुष्य अपनी अथवा अपने अधिकार की वस्तुओं में से कुछ अपने, अपने कुटुम्बीजनों के तथा आश्रितों के भोगोपभोग के लिये रखता है तब वह उन वस्तुओं की अपेक्षा से परिग्रही - भावपरिग्रही है, परन्तु उन वस्तुओं के सिवाय की जो अन्य वस्तुएँ वह दूसरों के उपयोग के लिए अलग रखता है और जब कभी दूसरे किसी को आवश्यकता होने पर उन्हें भोगोपभोग के लिये देता रहता है तब उन वस्तुओं के बारे में उसे परिग्रही (भावपरिग्रही) न मानकर एक ट्रस्टी ही समझना चाहिए । क्योंकि उन वस्तुओं के ऊपर उसे मोहममत्व नहीं होता, वह तो दूसरों के उपकार के लिये ही उन वस्तुओं को रखता है और स्वयं तो एक प्रामाणिक संरक्षक जैसा ही बना रहता है ।
कोई मनुष्य निर्धन अथवा दरिद्र क्यों न हो परन्तु उसके मन में यदि राग - रँग मनाने के आशय से अधिक मात्रा में धन एकत्रित करने की इच्छातृष्णा प्रज्वलित हो तो वह परिग्रही ( भावपरिग्रही ) है । द्रव्य - परिग्रह का अतिसंग्रह पाप है और वैसी इच्छा रखना भी पाप ही है। जीवन की सामान्य आवश्यकता एवं सुख-सुविधा के लिये आवश्यक द्रव्य - परिग्रह पर की ममता की गणना यद्यपि भाव - परिग्रह में होती है तो भी वैसी ममता गृहस्थाश्रम की परिस्थिति के साथ अनिवार्यरूपेण संयुक्त होने से तथा अनर्थदण्डरूप न होने से पापरूप गिनने योग्य नहीं है ।
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जीवन की सामान्य आवश्यकता तथा सामान्य सुख-सुविधा का अर्थ है अतिधनिक नहीं और अतिदरिद्र भी नहीं ऐसा मध्यम स्थिति का मनुष्य जिन आवश्यकताओं का और सुख-सुविधा का शान्तिपूर्वक उपभोग कर सके वैसी आवश्यकता और सुख-सुविधा । ऐसी मध्यमस्थिति में आत्मविकास तथा आत्मकल्याण के लिये अनुकूल परिस्थिति सामान्यतः मिल सकती है ।
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