________________
५०
जैनदर्शन ४. स्थूल मैथुनविरमण :
परस्त्री का त्याग करना इस व्रत का अर्थ है । वेश्या, विधवा और कमारी की संगति का त्याग भी इस व्रत में आ जाता है । अपनी पत्नी की मर्यादित संगति' के अतिरिक्त प्रत्येक प्रकार की कामचेष्टा हेय' है । इसी
१. मर्यादित संगति का अर्थ है-सामान्यतः वीर्यरक्षण का ध्येय रख कर प्रजोत्पत्ति की
इच्छा से और इसी उद्देश को सम्मुख रखकर स्त्री-पुरुष के बीच होनेवाला शारीरिक संसर्ग । वीर्य का उपयोग केवल प्रजोत्पति में ही सीमित नहीं है, परन्तु मनोबल एवं शरीरबल बढ़ाने में, संकल्पशक्ति दृढ़ करने में, आरोग्य की सुरक्षा में इस प्रकार शारीरिक, मानसिक, आध्यात्मिक तथा भौतिक उन्नति करने में भी वीर्य का उपयोग असाधारणरूप से अपेक्षित है । कामरस में अन्ध बन कर अतिशय विषयसेवन करने से शरीर एवं मन की शक्तियों का विनाश होता है तथा भौतिक सुख एवं प्रजोत्पत्ति के लिये भी भनुष्य अयोग्य बन जाता है । अतिविषयसेवन संकल्पबल को, जो किसी भी कार्य के लिये और मोक्ष के लिये भी अत्यन्त आवश्यक है, नष्टप्राय कर देता है और मनुष्य को अवनति के गहरे गड्ढे में ढकेल देता है । वीर्य में सर्जनशक्ति है और उसका उपयोग प्रजोत्पत्ति के अतिरिक्त अन्य उच्च कार्यों में भी हो सकता है यह खास ध्यान में रखने योग्य है। जो लोग साहित्य एवं विभिन्न शास्त्रों के अभ्यास में, अभिनव साहित्य के निर्माण में ज्ञान-विज्ञान की खोज में अथवा लोकोपयोगी सेवाकार्यों में सतत रत रहते हैं अथवा उच्च आदर्श के ध्यान में निमग्न रह कर उस आदर्श तक पहुँचने के मार्ग की विचारणा करने में तथा तदनुसार आचरण करने में सदा तल्लीन रहते हैं उन्हें विषयसेवन का विचार करने का अवकाश ही नहीं मिलता और जो ऐसे होते हैं वे ही महानुभाव सम्पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन कर सकते हैं। किसी भी शक्ति को (वासना भी एक शक्ति है) अंकुश में रखना हो तो उसे दबाने का प्रयत्न करना यह उसका रामबाण उपाय नहीं है । दबी हुई कमानी की तरह वह फिर दुगुनी ताकत से उछलती है । अत: उसका वास्तविक एवं समुचित उपाय तो उसे अन्य उपयोगी कार्य में लगाने में है । जिस प्रकार नदी की बाढ़ का पानी नुकसान पहुँचाए उससे पहले ही यदि नहर आदि खोद कर उसे दूसरी ओर ले जाया जाय तो वह नुकसान करने के बदले उलटा उपयोगी हो जाता है उसी प्रकार वासना का नियन्त्रण करके उसे यदि उपयोगी कार्य में लगाया जाय तो वह भी कल्याणकारी हो सकती है । परन्तु यदि वह दूसरी ओर
न लगाई जाय तो उसकी बाढ़ में बह जाने की पूरी सम्भावना रहती है । २. षण्ढत्वमिन्द्रयच्छेदं वीक्ष्याऽब्रह्मफलं सुधीः ।
भवेत् स्वदारसन्तुष्टोऽन्यदारान् वा विवर्जयेत् ॥ -आचार्य हेमचन्द्र, योगशास्त्र २-७६.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org