________________
जैनदर्शन
को ही देना और दूसरों को न देना वस्तुतः संकुचित मनोदशा का सूचक है। किसी पराए मनुष्य की रोटी बनाने के लिये आग न देना यह वस्तुतः चित्त की कठोरता ही है । उपर्युक्त श्लोकार्ध 'उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्' ध्यान में रखने योग्य है । भलाई के लिये पारस्परिक व्यवहार का क्षेत्र सम्पूर्ण विश्व है । किसी निरपराधी प्राणी के ऊपर कोई अन्यायपूर्ण आक्रमण करे और उस निरपराधी को बचाने के लिये यदि अपना शस्त्र देना पडे तो वह अनर्थदण्ड नहीं है । परन्तु किसी आक्रमक को केवल हिंसा के लिये ही हिंसा का उपकरण देना अनर्थदण्ड है । (३) दुर्ध्यान न करना
दूसरे का बुरा करने का विचार, अनीति-अन्याय का विचार, निरर्थक मोह-रस में अपने मन को बहकने देना तथा व्यर्थ दुःखाक्रन्दन के विचार करते रहना अनर्थदण्ड ही है । अनिष्ट की प्राप्ति और इष्ट की अप्राप्ति तथा रोगविषयक व्यर्थ चिन्ताज्वाला दुर्व्यानरूप होने से अनर्थदण्ड है । व्यापाररोजगार और गृहस्थाश्रम की व्यवस्था के यथोचित विचार अनर्थदण्ड में नहीं आतें । राम जैसे न्यायी के जय और रावण जैसे अन्यायी के पराजय के बारे में विचार करना दुर्ध्यानरूप अनर्थदण्ड नहीं है, क्योंकि न्याय के रक्षण एवं अन्याय के विनाश का विचार, जनहित के लिये उपयोगी है, अत: उसका आकलन अनर्थदण्ड में नहीं होता । इसी प्रकार व्याधि को दूर करने का और आरोग्य की साधना का योग्य विचार अनर्थदण्ड में नहीं आता तथा इष्टप्राप्ति अथवा अनिष्टपरिहार की उचित विचारणा अनर्थदण्ड में नहीं आती। (४) प्रमादचर्या
निरर्थक जमीन खोदना या कुरेदना, व्यर्थ आग सुलगाना आदि प्रमादचर्या अनर्थदण्ड है । रास्ते में खडे हुए किसी जानवर को बिना कारण दण्डे से फटकारना बेवकूफी ही है। ऐसे बहुत से अनर्थदण्ड के पाप मनुष्य करता है, परन्तु सावधानीपूर्वक इनसे विरत होना चाहिए । अहिंसा के अणुव्रत में 'स्थावर' जीवों की हिंसा का त्याग यद्यपि नहीं आता; फिर भी जिसका समावेश अनर्थदण्ड में होता है, उनकी निरर्थक हिंसा, न करने का इस व्रत
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org