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________________ द्वितीय खण्ड १०७ स्पष्टतया फलित होता है कि साधुसंस्था समाज पर बोझरूप न हो और साधुजनों में रसलुब्धता उत्पन्न न हो । साधु का धर्म सर्वथा अकिञ्चन-अपरिग्रही रहने का है, अर्थात् वह पैसा नहीं रख सकता, द्रव्य के सम्बन्ध से वह सर्वथा मुक्त होना चाहिए । यहाँ तक कि उसके भोजन के पात्र भी धातु के' नहीं होने चाहिए । काष्ठ, मिट्टी अथवा तूम्बे के पात्र ही साधु के लिये उपयोगी हैं । वर्षा ऋतु में साधु एक स्थान पर रहता है । साधु से स्त्री का स्पर्श तक नहीं हो सकता । संक्षेप में सांसारिक सर्व प्रपंचों से निर्मुक्त होकर सदा अध्यात्मरति १. अतैजसानि पात्राणि तस्य स्युनिव्रणानि च । अलाबु दारुपात्रं मृन्मयं वैदलं तथा । एतानि यतिपात्राणि मनुः स्वायम्भुवोऽब्रवीत् ॥ -मनुस्मृति अ. ६, श्लो. ५३-५४ अर्थात्-धातु सिवाय के तथा छिद्ररहित पात्र साधु के योग्य है । तुम्बे, काष्ठ, मिट्टी तथा बांस के पात्र संन्यासियों के लिये मनु ने कहे हैं । २. साधु की विरक्ति दशा के सम्बन्ध में मनुस्मृति के छठे अध्याय में सुन्दर उपदेश मिलता है"अतिवादांस्तितिक्षेत नावमन्येत कंचन । न चेमं देहमाश्रित्य वैरं कुर्वीत केनचित् ॥४७॥ क्रुध्यन्तं न प्रतिक्रुध्येदाक्रुष्टः कुशलं वदेत् । xxx ॥४८॥ भैक्षे प्रसक्तो हि यतिविषयेष्वपि सज्जति ॥५५|| अलाभे न विषादी स्याल्लाभे चैव न हर्षयेत् । प्राणयात्रिकमात्रः स्यान्मात्रासंगाद् विनिर्गतः ॥५७॥ इन्द्रियाणां निरोधेन रागद्वेषक्षयेण च । अहिंसया च भूतानामृतत्वाय कल्पते" ॥६०॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002971
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorNyayavijay
Author
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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