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द्वितीय खण्ड
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स्पष्टतया फलित होता है कि साधुसंस्था समाज पर बोझरूप न हो और साधुजनों में रसलुब्धता उत्पन्न न हो ।
साधु का धर्म सर्वथा अकिञ्चन-अपरिग्रही रहने का है, अर्थात् वह पैसा नहीं रख सकता, द्रव्य के सम्बन्ध से वह सर्वथा मुक्त होना चाहिए । यहाँ तक कि उसके भोजन के पात्र भी धातु के' नहीं होने चाहिए । काष्ठ, मिट्टी अथवा तूम्बे के पात्र ही साधु के लिये उपयोगी हैं ।
वर्षा ऋतु में साधु एक स्थान पर रहता है । साधु से स्त्री का स्पर्श तक नहीं हो सकता ।
संक्षेप में सांसारिक सर्व प्रपंचों से निर्मुक्त होकर सदा अध्यात्मरति
१. अतैजसानि पात्राणि तस्य स्युनिव्रणानि च ।
अलाबु दारुपात्रं मृन्मयं वैदलं तथा । एतानि यतिपात्राणि मनुः स्वायम्भुवोऽब्रवीत् ॥
-मनुस्मृति अ. ६, श्लो. ५३-५४ अर्थात्-धातु सिवाय के तथा छिद्ररहित पात्र साधु के योग्य है । तुम्बे, काष्ठ, मिट्टी
तथा बांस के पात्र संन्यासियों के लिये मनु ने कहे हैं । २. साधु की विरक्ति दशा के सम्बन्ध में मनुस्मृति के छठे अध्याय में सुन्दर उपदेश
मिलता है"अतिवादांस्तितिक्षेत नावमन्येत कंचन । न चेमं देहमाश्रित्य वैरं कुर्वीत केनचित् ॥४७॥
क्रुध्यन्तं न प्रतिक्रुध्येदाक्रुष्टः कुशलं वदेत् । xxx ॥४८॥
भैक्षे प्रसक्तो हि यतिविषयेष्वपि सज्जति ॥५५|| अलाभे न विषादी स्याल्लाभे चैव न हर्षयेत् । प्राणयात्रिकमात्रः स्यान्मात्रासंगाद् विनिर्गतः ॥५७॥ इन्द्रियाणां निरोधेन रागद्वेषक्षयेण च । अहिंसया च भूतानामृतत्वाय कल्पते" ॥६०॥
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