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जैनदर्शन
परायण रहना यही साधु का धर्म है । आत्मकल्याण के साधन में सतत निरत रहकर निःस्वार्थभाव से अपने जीवन को परकल्याण के लिये उपयोगी बनाना, जनता का सच्चा सन्मार्गदर्शक होना—यही साधु-जीवन है । साधु-जीवन वस्तुतः विश्वबन्धुत्व का जीवन है, अहंकार, घमण्ड, क्रोध, रोष, दम्भ-वक्रता और मोह-ममता तथा मान-सत्कार की लिप्सा जैसे दूषण दूर होकर निर्मल बना हुआ उज्ज्वल जीवन है ।
साधु अर्थात् सच्चा त्यागी । साधु अर्थात् जिसमें ज्ञान एवं चारित्र का सुभग संयोग सिद्ध हुआ हो ऐसा तेजस्वी मनुष्य । आसक्ति के वश न होकर गृहस्थों के पास से जो जीवन की आवश्यक वस्तुएँ निर्दोषरूप से तथा सहज एवं सरलता से मिले उसी में सन्तोष रखनेवाला वह होता है । संयम में वह सदा जाग्रत होता है, शम-दम की उसकी साधना उच्च श्रेणी की होती है और ज्ञानलोक के सच्चे प्रकाश से वह प्रकाशमान होता है ।
त्यागी अपने लिये कम से कम-आवश्यक हो उतनी ही-सविधा की अपेक्षा रखता है और वह पूर्ण होने पर उसमें सम्पूर्ण सन्तोष एवं सात्त्विक आनन्द का अनुभव करता है, परन्तु किसी समय यदि पूर्ण न हो तो उद्विग्न नहीं होता । अमुक प्रकार का खाना-पीना मिले तो अच्छा, अमुक प्रकार के अथवा अमुक स्थान के बने हुए वस्त्र मिलें तो अच्छा, अमुक प्रकार निवासभवन तथा अन्य चीजें मिले तो अच्छा-इस प्रकार का मोह उसे नहीं होता । जिस समय जो वस्तु सरल एवं सहजभाव से प्राप्त हो उस समय उसका स्वीकार करके वह सन्तुष्ट रहता है । इस प्रकार का त्याग सच्चे वैराग्य में से ही उत्पन्न होता है। बिना वैराग्य का त्याग सच्चा त्याग नहीं, किन्तु त्याग की विडम्बना है; क्योंकि ऐसी स्थिति में जिसका बाहर से त्याग किया
अर्थात्---निन्दा-अपमान सहे परन्तु किसी का अपमान न करे, इस देह के लिये किसी के साथ वैर न करे, क्रोध करनेवाले के ऊपर क्रोध न करे, आक्रोश करनेवाले का कुशल चाहे । भिक्षा के लोभ में आसक्त यति विषयों में डूब जाता है । लाभ होने पर प्रसन्न न हो और अलाभ होने पर खिन्न न हो । केवल प्राणरक्षा के लिये भोजन करे। आसक्ति से दूर रहे । इन्द्रियों के निरोध से, राग-द्वेष के विदारण से और प्राणीमात्र पर अहिंसा-वृत्ति धारण करने से मोक्ष के योग्य हुआ जाता है ।
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