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________________ १०९ द्वितीय खण्ड होता है उसके लिये मन तो उत्कण्ठित ही रहता है । वैराग्य के बिना त्याग अधिक टिक नहीं सकता । बाह्य वेष, एक ओर तो स्वेच्छापूर्वक स्वीकृत संन्यासमार्ग के योग्य जीवन जीने की तरफ लक्ष खींचता है, तो दूसरी ओर दोषयुक्त आन्तरिक जीवन छुपाकर दम्भ करने में भी कारणभूत हो सकता है । जीवन की सच्ची जानकारी प्राप्त किए बिना बाह्य वेष की तरफ उपेक्षावृत्ति रखने से सच्चे सन्तपुरुष का अनादर या अपमान हो जाने का बड़ा भय रहता है, इसी प्रकार बाह्य वेष पर अन्धश्रद्धा रखने से ठगे जाने का भी बडा भय है। अतः यथार्थ निर्णय पर आने के लिये बाह्य वेष एवं आन्तरिक जीवन इन दोनों पर ध्यान देने की आवश्यकता है और इसीलिये इस बारे में विवेक तथा धैर्य की आवश्यकता है, एकदम पूर्वग्रह बाँध लेने में खतरा है। साधुजीवन का उद्देश अपने उपदेश एवं आचरण द्वारा, जिसकी जैसी योग्यता हो उस प्रकार से, लोगों को गृहस्थधर्म अथवा साधुधर्म के क्षेत्र में मार्गदर्शक होने का है। धर्म के विषय में महत्त्व की बात कौन सी है और गौण बात कौन सी इसका उसमें विवेक होना आवश्यक है । अहिंसा आदि पाँच व्रत मुख्य महत्त्व के विषय हैं, जबकि बाह्य क्रियाकाण्ड की परम्परागत बातें उतनी महत्त्व की नहीं है; फिर भी उनके बारे में 'यही सर्वस्व है' इस प्रकार की प्ररूपणा करके समाज में यदि कोई साधु अथवा धर्माचार्य कलह उत्पन्न करता हो अथवा समाज को विभक्त करता हो तो वह अपने वास्तविक धर्म से च्युत होता है । साधु तो समग्र समाज में शान्ति फैले ऐसी भावना तथा प्रवृत्तिवाला होता है, प्रशान्त एवं सत्त्वपूर्ण वर्चस् संपन्न होता है । दार्शनिक मान्यताओं की उसकी चर्चा भी गम्भीर और सौम्यभाव से परिपूर्ण तथा समन्वयदृष्टि से सुशोभित होती है जिससे किसी के मन में अशान्त तथा समाज में झगडा टण्य उत्पन्न ही न हो। गृहस्थों का आचार : गृहस्थों का सर्वप्रथम महत्त्वपूर्ण सद्गुण यह है कि उसे अपना व्यवहार नैतिक (न्याययुक्त) रखना चाहिए । सच्चाई अथवा व्यवस्थित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002971
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorNyayavijay
Author
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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