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जैनदर्शन
प्रामाणिकता तथा नेकी के समुचित कक्षा पर उसका जीवनव्यवहार चलना चाहिए । यहाँ पर इस बारे में कुछ विशेष अवबोधन करना योग्य है । अहिंसा के बारे में :
पहली बात अहिंसाविषयक है । अनिवार्यरूप से जीवन के साथ लगी हुई हिंसा किए बिना तो हमारा चारा ही नहीं है । परन्तु हिंसा को जीवन का नियम न बनाकर कम से कम हिंसा से किस तरह निर्वाह किया जाय ऐसे मार्गों की खोज की ओर प्रयत्नशील रहना चाहिए ।
'अविकसित जीवों की अपेक्षा विकसित जीवों को यथाशक्य बचाओ और अविकसित जीवों की कम से कम हिंसा हो इस प्रकार जीवन व्यवस्था रखो' यही सन्तों का उपदेश है । इस दृष्टि से मांसाहार, शिकार, संहार अथवा हिंसा निषिद्ध माने गए हैं ।
विरोधी पर आवेशवश उबलने लगना और उसके साथ टण्टे-फिसाद में उतरना इसमें (हिंसा में ) कौन सी शूरता है ? शूरता तो है अहिंसा मेंविरोधी के ऊपर अपने मन को क्रूद्ध अथवा क्रुर न होने देकर अपने विवेकपूत सत्त्वबल से उसे शान्तवृत्ति में, योग्य संयम रखने में । इस प्रकार शरीर बल अथवा भौतिक बल, जिसे पशुबल भी कहते हैं, उसकी अपेक्षा उपर्युक्त मनोबल किंवा आत्मबल, जो कि अहिंसारूप है, कहीं अधिक उन्नत है। यह बल मानव-समाज में जितना खिले उतना ही उसका आध्यात्मिक, धार्मिक तथा भौतिक विकास शक्य है । विवेकबुद्धि तथा सत्त्वशक्ति के प्रकाशरूप अहिंसा के बल से ही मानवजगत् मैत्री और सौहार्द, बल और शक्ति तथा आनन्द और आह्लाद से समृद्ध होकर स्वर्गलोकतुल्य हो सकता है ।
कहने का अभिप्राय यह है कि अहिंसा एक आध्यात्मिक बल है । यह उच्च प्रकार की क्षात्रवृत्ति-वीरवृत्ति की अपेक्षा रखती है । अपनी स्वेच्छा से स्वार्थत्याग अथवा आवश्यकता पड़ने पर अपना बलिदान देकर भी हिंसा का विरोध करना और अहिंसा को जीवित रखना यह एक अत्यन्त उच्च कोटि की क्षात्रवृत्ति-वीरवृत्ति है । परन्तु दुःख सहन करने के समय डर कर भाग जाना और सिर्फ मुँह से हिंसा का विरोध करना यह कोई अहिंसा का पालन
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