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________________ द्वितीय खण्ड १११ EEEEEE नहीं है । लड लेने की हिम्मत और शक्ति होने पर भी ऐसा कोई प्रसंग उपस्थित होने पर जो मनुष्य अपने आवेश को संयम में रखकर हिंसा नहीं करता उसी की गिनती अहिंसक में हो सकती है । साहसहीन और दुर्बल मनुष्य यदि अहिंसक होने का दावा करे तो वह गलत है क्योंकि उस मनुष्य में हिम्मत नहीं है, सामना करने का बल नहीं है, अतः वह (बाह्य) हिंसा नहीं करता, परन्तु कायर एवं दुर्बल होने के कारण सामना करने का वीरतापूर्ण कार्य करने में अशक्त होने पर भी उसके निर्बल मन में तो ऐसे अवसर पर हिंसाग्नि जलती ही होती है, रोष एवं क्रोध की ज्वाला तो धधकती ही रहती है । निर्बल मनुष्य का निर्बल मन 'कमजोर और गुस्सा बहुत' इस लोकोक्ति के अनुसार तुच्छ कारण उपस्थित होने पर भी हिंसावृत्ति से जबतब आकुलित हो उठता है, बात-बात में वह निरर्थक आवेशवश दहक उठता है । अहिंसा की सिद्धि के लिये सच्ची समझ के अतिरिक्त बल और हिम्मत भी चाहिए तथा इसके लिए शारीरिक बल सम्पादित करना चाहिए । बल अर्थात् शारीरिक शक्ति का कितना मूल्य है ? आततायी, आक्रमक एवं दुष्ट शत्रुओं के फन्दे में फंसे हुए लोगों को, उन दुष्टों का वीरतापूर्ण सामना करके उनके फंदे में से बचा लेने में शारीरिक शक्ति का कितना उपयोग हो सकता है ? वस्तुतः शारीरिक शक्ति जिस प्रकार समय आने पर दुष्ट की दुष्टता का दमन करने में उपयोगी होती है उसी प्रकार दुष्ट द्वारा पीड़ित जनता का उद्धार करने में भी आशीर्वाद-रूप होती है । जनरक्षारूप अहिंसा के लिये शारीरिक बल जैसे उपयोगी है वैसे चित्त की स्वस्थतारूप आभ्यन्तर अहिंसा के लिये भी वह उतना ही आवश्यक है । अहिंसा का उपदेश दिया है क्षत्रियों ने और उसे ग्रहण भी कर सकते हैं क्षात्रवृत्ति के बहादुर ही । सचमुच उत्कर्ष अथवा उत्क्रान्ति क्षात्रवृत्ति पर ही आश्रित है । यही लौकिक या आध्यात्मिक अभ्युदय साध सकती है । जहाँ कायरता अथवा भयभीतता हो वहाँ अहिंसा की साधना शक्य नहीं है । निर्बलता अथवा बुजदिली जीवन का बड़े से बड़ा रोग है । 'वीरभोग्या वसुन्धरा' यह कथन वर्तमानयुगीन विचारसरणी के योग्य हो या न हो परन्तु 'अहिंसा बलवत्साध्या [अहिंसा बलवान् से ही साध्य है] यह तो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002971
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorNyayavijay
Author
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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