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जैनदर्शन
त्रिकालाबाधित सनातन सत्य है । विवेकशाली वीर ही अहिंसा का पालक हो सकता है । अर्हन्त उच्च श्रेणी के क्षात्रधर्मी होते हैं और विवेकशाली क्षात्रधर्मी ही उनका उपासक अथवा अनुयायी हो सकता है । कायर लोग भी अपनी कायरता झटक कर उनके उपासक हो सकते हैं ।
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जिस प्रकार मारने आदि कृत्यों द्वारा हिंसा होती है उसी प्रकार शक्ति होने पर भी हिंसा की रोक-थाम में अपना सहयोग न देना, चुपचाप बैठे रहना भी हिंसा है । यदि कोई मनुष्य डूबता हो और अपने को तैरना आता हो तो भी उसे बचाने का प्रयत्न करने के बदले देखते रहना यह भी हिंसा है । कोई मनुष्य भूख से पीड़ित हो रहा हो और अपनी शक्ति होने पर भी उसे खाना न देना हिंसा है । ऐसी सब प्रकार की हिंसा निष्ठुर लापरवाही में से 'मुझे क्या ? मैं ऐसे झंझट में क्यों पडुं ? मैं क्यों यह सहन करूँ ?'इस प्रकार की निष्ठुर उदासीनवृत्ति में से उत्पन्न होती है । निष्ठुरता अधर्म है और 'दया धर्म का मूल है' । अपने सुख, आराम और लाभ के लिये दूसरे के सुख, आराम और हित की ओर दुर्लक्ष करना- - असावधान रहना भी हिंसा है । दूसरे मनुष्य के श्रम का अनुचित लाभ उठाना भी हिंसा है । वास्तविक घटना हमें ज्ञात हो तथा वैसी गवाही देने से निर्दोष मनुष्य के बचने की सम्भावना भी हो तो भी उसके न्याय लाभ में गवाही देने से इनकार करके उसे अन्याय का शिकार होने देना मृषावाद ही है और साथ ही हिंसा भी
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है । मेरे घर का कूडा-करकट पड़ौसी के घर के आगे यदि मैं डाल दूँ अथवा मेरे घर में से निकला हुआ बिच्छू या प्लेग का चूहा पड़ौसी के घर के आगे यदि मैं फेंक दूँ और इस प्रकार पड़ौसी को भय में डालूँ या तकलीफ पहुँचाऊँ तो वह भी हिंसा है ।
सत्य के बारे में :
जो वस्तु जैसी हो अथवा जैसी हुई हो वैसा कहना इसे सामान्यतः सत्य कहा जाता है और वास्तविकता की दृष्टि से वह है भी सत्य, परन्तु धार्मिक दृष्टि से उसे सत्य कहा भी जा सकता है और नहीं भी कहा जा सकता । यदि वह वस्तुतः यथार्थ हो और साथ ही जनकल्याणकारी न हो तो वह नि:सन्देह सत्य है । परन्तु यदि वह हकीकत की दृष्टि से सत्य होने
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