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________________ द्वितीय खण्ड ११३ पर भी अकल्याणकारी हो तो उसे असत्य ही समझना चाहिए । यदि कोई दुष्ट बदमास किसी सुकुमार स्त्री के पीछे पड़ा हो अथवा कोई शिकारी किसी मृग का पीछा पकड़ रहा हो और वह कहाँ पर छिपा है इसकी हमें जानकारी हो, फिर भी उस गुण्डे अथवा शिकारी के पूछने पर उसका ठिकाना न बताकर चुप रहना अथवा दूसरा रास्ता दिखाना और इस तरह निर्दोष की रक्षा करना हमारे लिये धर्म है। फिसाद करने पर तुले हुए गुण्डे किसी मकानवाले पूछे कि इस मकान में अमुक मनुष्य है ? अब, मकान में छुपे हुए अथवा स्त्री के बुर्के मे छुपे हुए उस मनुष्य को यदि वह दिखला दे तो तुरन्त ही उस निरपराध मनुष्य का सफाया हो जाय । ऐसी स्थिति में उस मकानवाले को बिना किसी प्रकार की झिझक के असत्य बोलना पड़ता है कि वह मनुष्य यहाँ नहीं है । इस प्रकार का उत्तर देना उस समय कर्तव्य एवं धर्म है । हकीकत की दृष्टि से जो यथार्थ हो परन्तु यदि वह अहितकारी हो तो उसकी गणना सत्य में नहीं होती । सत्य बोलने - न-बोलने के बारे में बहुत विवेक एवं सतर्कता की आवश्यकता है । रोगी अथवा पागल जैसौं के साथ उनके हित के लिये यदि असत्य बोलना पड़े तो वह निःस्वार्थ तथा सिर्फ उनके हितसाधन के लिये बोला गया होने से अनुचित नहीं है । अपना न्यायसंगत रहस्य छुपाने जैसा हो और उसे छुपाने के लिये मौन रखने से यदि न चले और असत्य बोलना पड़े तो वह अनुचित नहीं है 1 १. सद्भयो हितं सत्यम् — प्राणी के लिये हितकर हो वह सत्य । उक्तेऽनृते भवद् यत्र प्राणिनां प्राणरक्षणम् । अनृतं तत्र सत्यं स्यात् सत्यमप्यनृतं भवेत् ॥ महाभारत अर्थात् — असत्य बोलने पर यदि प्राणियों की रक्षा होती हो तो उस समय वह असत्य सत्य है और यदि उस समय सत्य बोला जाय तो वह असत्य है । ( इस प्रकार सत्य भी असत्य बनता है और असत्य भी सत्य 1) "तुसिणीओ उवेहेज्जा, जाणं वा नो जाणं ति वएज्जा Jain Education International अर्थात् — मौन रहे अथवा जानने पर भी 'नहीं जानता' ऐसा कहे । - आचाराङ्ग २. ३. ३. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002971
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorNyayavijay
Author
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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