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________________ जैनदर्शन अन्याय्य अथवा अनुचित प्रतिज्ञा का भंग करने में असत्य दोष नहीं है । उदाहरणार्थ, कोई मनुष्य ऐसी प्रतिज्ञा करे कि 'मेरा लड़का यदि स्वस्थ हो जायगा तो मैं देवी को एक बकरा चढाउँगा' परन्तु बाद में समझ आने पर कि पशुहत्या तो घोर पाप है और देवी के आगे तो यह अत्यन्त निन्दनीय पाप है, वह अपनी प्रतिज्ञा का भंग करे तो अनुचित नहीं । उसे ऐसी प्रतिज्ञा तोड़नी ही चाहिए । अधर्ममय प्रतिज्ञा के पालन में पाप है, जबकि उसे तोड़ने में कल्याण है । I ११४ उपर्युक्त आपवादिक असत्य यदि बोलने पड़े तो बोलने के बाद इस तरह का असत्य बोलने का प्रसंग उपस्थित हुआ इसलिये अन्तःकरण में प्रायश्चित्तरूप आलोचना करना योग्य है, क्योंकि ऐसी आलोचना ऊर्ध्वारोहण की भावना को विकसित रखने में उपयोगी है । बालक अथवा दूसरों के साथ मृदु एवं निर्दोष हास्यविनोद में किसी को खेद न हो उस तरह, क्षणभर जैसातैसा बोला जाता है वह असत्य दोषरूप नहीं है । शिष्टाचार के नाते मर्यादित असत्य बोलना पड़े तो वह भी क्षन्तव्य है । तिरस्कारवृत्ति से अन्धे को अन्धा, काने को काना, मूर्ख को मूर्ख कहना असत्य है । दुर्भाव से या मिथ्या आवेशवश कटु शब्द बोलना, गाली देना, क्रूर हँसी करना यह सब असत्य में समाविष्ट है । अचौर्य के बारे में : कोई मनुष्य दूसरे की चोरी करता हुआ मालूम होता हो, परन्तु उसे रोकने में अथवा गृहस्वामी का ध्यान उस ओर आकर्षित करने में उपेक्षा १. वाणी - व्यवहार की सामान्य पद्धति का उल्लेख करते हुए मनुस्मृति के चतुर्थ अध्याय में कहा है— सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयान्न ब्रूयात् सत्यमप्रियम् । प्रियं च नानृतं ब्रूयाद् एष धर्मः सनातनः ॥ १३८ ॥ अर्थात्— 1- सत्य और वह भी प्रिय बोलना । अप्रिय सत्य न बोलना तथा प्रिय होने पर भी असत्य न बोलना । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002971
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorNyayavijay
Author
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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