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________________ द्वितीय खण्ड ११५ दिखाकर चुप रहना - ऐसी लापरवाही अथवा कायरता बहुत ही खराब है । स्वयं चोरी न करनेवाला भी इस तरह यदि चोरी होने दे तो उसे चोरी होने देने रूप चोरी का पाप लगता है । धन्धे - रोजगार में अनीति करना, कूट-कपट से किसी का धन हड़पना, इधर-उधर का समझाकर किसी को ठगना, विश्वास में लेकर किसी को नुकसान में उतार देना, चालाकी से किसी का कुछ ले लेना अथवा बिगाडना,-अन्याय से - अनुचित रूप से किसी को हैरान करना, निर्दोष को सताना इस प्रकार का सब अपकृत्य पापाचरण है । -- किसी को चोरी के कार्य में प्रेरित करना, उसमें सम्मत होना, चोर द्वारा चुराई हुई वस्तु लेना, प्रजाहित के लिये बनाए हुए कायदे-कानून का भंग करना, न्यूनाधिक नाप-तौल के वजन आदि रखना, कम देना - अधिक लेना, वस्तु में मिलावट करना, असली माल के बदले नकली माल देना - ये सब चोरीरूप दुष्कृत्य है । किसी मनुष्य की लाचारी का अनुचित लाभ उठाकर उसके पास से अधिक ले लेना, कोई मनुष्य भूल से अधिक दे गया हो तो रख लेना चोरी है । संक्षेप में, अन्याय से नीतिविरुद्ध दूसरे की चीज ले लेना चोरी है । उद्योगपति तथा धनिकों की संग्रहवृत्ति एवं शोषणवृत्ति के दुष्परिणामरूप —— उसके खराब प्रत्याघातरूप ठगाई, डकैती, गुण्डापन, कालाबाजार आदि निकृष्ट एवं अधम तत्त्व पैदा होते हैं और उनका प्रचार होता है । बेकारी के कारण मनुष्य चोरी के मार्ग पर जा गिरता है । द्रव्य - लोलुपता का दुष्ट आवेग मनुष्य से अनीति एवं परद्रोह के पाप करवाता है 1 तथा अपने बडप्पन का प्रदर्शन करने के लिये मनुष्य धनलुब्ध बनकर लुच्चाई और दगाखोरी का रास्ता पकड़ता है । फिजुलखर्ची तथा दुर्व्यसन के पाप के कारण मनुष्य चोरी व ठगाई करने लगता है । बुरे संग और बुरे असर से वह चोरी और अनाचार सीखता है । समुचित परिग्रह में सन्तोष, सादा और संयमी जीवन तथा व्यापक बन्धुभाव के सद्गुणों से समाज की नैतिक भूमिका जब उन्नत होगी तभी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002971
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorNyayavijay
Author
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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