SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 147
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ११६ जैनदर्शन जहाँ-तहाँ फैले हुए अनीति, चोरी, ठगाई और शैतानियत के पाप स्वतः बिखरने लगेंगे । दुर्व्यसनरूप व्यवसाय : जुआ अथवा सट्टा न तो प्रामाणिक व्यवसाय है और न उद्यमशील रोजगार । छल-बल भरे हुए इस धन्धे से दूसरे कितने ही साफ हो जाते हैं तब एक को धन मिलता है । इसी तरह बहुतों को संकट में डालकर बिना किसी प्रकार के श्रम के ऐसे धन्धों से धन एकत्रित करके उसमें से थोडा धर्मार्थ दान देने से शायद जिसे दिया गया हो उसका तो कुछ भला हो परन्तु उस दान से उस दाता का उन सैकड़ों मनुष्यों के हृदय जलाने का पाप कैसे धुल सकता है ? हाँ, धुल सकता है—इस प्रकार का सब धन लोकोपयोगी प्रवृत्तियों में अर्पण करके पश्चात्तापपूर्वक ऐसे कलुषित धन्धे छोड़ दिए जायँ तो । अन्यायोपार्जित धन' से बेसमझ समाज में मिलनेवाली प्रतिष्ठा और आदरसत्कार का मूल्य आध्यात्मिक दृष्टि से कुछ भी नहीं है । इस तरह मिलनेवाली प्रतिष्ठा अथवा आदर-सत्कार के लिये अभिमान लेना तो और भी विशेष पाप में पड़ने जैसा है । परिग्रहपरिमाण के बारे में : परिग्रहपरिमाण व्रत का इसलिये उपदेश दिया गया है कि लोभ का आक्रमण मन्द हो, नीति का धोरण अखण्डित रहे और पूंजीपति अपने अधिक धन का समाज के हितसाधन में उपयोग करे । इस प्रकार के उपयोग से ही पूंजीपति दरिद्र एवं बेकार लोगों की विरोधवृत्ति का योग्य प्रतीकार कर सकते हैं। वे अपने अनावश्यक मौजमजाह तथा दूसरी तरह से होनेवाले दुर्व्यय १. अन्यायोपार्जित धन का दान कैसा है यह नीचे का प्राचीन श्लोक स्पष्ट करता है अन्यायोपात्तवित्तस्य दानमत्यन्तदोषकृत् । धेनुं निहत्य तन्मांसाङ्क्षाणामिव तर्पणम् ॥ अर्थात्-अन्यायोपार्जित द्रव्य का दान अत्यन्त दोषकारी है । वह तो गाय को मारकर उसके मांस से कौओं का तर्पण करने जैसा है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002971
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorNyayavijay
Author
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy