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द्वितीय खण्ड
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का त्याग करके तथा अपनी आवश्यकताओं को उचित रूप से मर्यादित करके अपने अधिक धन का उपयोग समाज के हित-साधन में करें । इसी में उनका तथा समाज का कल्याण हैं ।
परिग्रहपरिमाण व्रत लेने के पीछे उसका उद्देश परिग्रह का परिमाण अर्थात् उसकी मर्यादा बाँधने का है, परिग्रह बढ़ाने में अथवा संग्रहवृत्ति को अमर्याद रखने में उसका उपयोग करने का नहीं है । यदि कोई साधारण स्थिति का मनुष्य परिग्रहपरिमाण व्रत लेने की इच्छा प्रदर्शित करके ऐसा कहे कि 'एक मन हीरे, दो मन मोती, दस लाख रुपए, तीन हजार के बरतन, दस हजार के फर्नीचर रखने के लिये परिग्रहपरिमाण का व्रत दो' तो ऐसा मनुष्य वस्तुतः परिग्रहपरिमाण व्रत की हँसी ही उड़ाता है और ऐसा व्रत देनेवाला अविवेकी ही समझा जायगा, क्योंकि ऐसा व्रत लेनेवाले का उद्देश स्पष्टतः अपनी अमर्याद संग्रहवृत्ति के पोषण का ही है, न कि समाज के व्यक्तियों में जो विषमता है उसे दूर करने का अथवा सन्तोषवृत्ति धारण करने
का ।
भोगोपभोगपरिमाण व्रत का सम्बन्ध :
१. जो पदार्थ भोग अथवा उपभोग में आते हैं उनका परिमाण बाँधने के साथ है, तथा
२. जिन व्यवसायों में उन पदार्थों की उत्पत्ति होती हो उन व्यवसायों के साथ है ।
जिन व्यवसायों में बहुत बडी मात्रा में हिंसा होने की सम्भावना हो वैसे मिल आदि यान्त्रिक उद्योग तथा ऐसे इतर व्यवसायों के दोष से मुक्त होने के लिये इतना ही पर्याप्त नहीं है कि वे धन्धे किए ही न जायँ अथवा कराए न जाय, बल्कि ऐसे धन्धों से उत्पन्न होनेवाली वस्तुओं का उपभोग भी नहीं करना चाहिए । ऐसी वस्तुओं का उपभोग करने पर भी यदि हम ऐसा मान लें कि 'हम ऐसे धन्धे न तो स्वयं करते हैं और न दूसरों से करवाते हैं, जिससे हमें उनका दोष लगे, तो यह एक स्पष्ट आत्मवंचना ही है । मांसाहारी मनुष्य यदि ऐसी दलील करे कि जिस प्राणी का मांस मैंने
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