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________________ ११८ जैनदर्शन खाया है उस प्राणी की हिंसा न तो मैंने की है और न करवाई है, अतः प्राणीवध का दोष मुझे नहीं लगता तो इस दलील को कोई उपयुक्त नहीं मानेगा । वह यदि अपनी दलील की पुष्टि में यों कहने लगे कि मांस सचित्त होगा तो उसकी सचित्तता का दोष मुझे लगेगा परन्तु प्राणीवध का दोष मुझे नहीं लग सकता और यदि कदाचित् वह उचित्त होगा तो सचित्तता का दोष भी मुझे नहीं लगेगा तो इस प्रकार का उसका अपने कार्य का समर्थन किसी काम का नहीं है । उसे प्राणीवध का पाप लगने का ही । आचार्य हेमचन्द्र कहते है कि प्राणी का घातक तो घातक है ही, परन्तु उसका मांस बेचनेवाला, खरीदनेवाला, पकानेवाला, परोसनेवाला तथा खानेवाला-ये सब लोग भी घातक हैं । आगे २३वें श्लोक में 'न वधको भक्षकं विना' इन शब्दों से इसी बात को पुष्ट करते हुए वे कहते हैं कि खानेवाले के होने पर ही वध करनेवाले होते हैं, यदि खानेवाले न हो तो कोई वध करनेवाला भी नहीं होगा, अत: सच्चा घातक तो खानेवाला है। श्री हेमचन्द्राचार्य के ये वचन ध्यान में रखने योग्य हैं । यदि मुझे मिल में उत्पन्न वस्त्र पहनने हों, यदि मुझे पशु-हिंसा से बनी हुई चमड़े की वस्तुओं का उपयोग करना हों, यदि मुझे चतुरिन्द्रिय जीवों का नाश करके बनाए गए रेशम के कपड़े पहनने हों अथवा रेशमी चीजें रखनी हों, यदि मुझे पञ्चेन्द्रिय मछलियों का नाश करके प्राप्त किए गए मोती के आभूषण पहनने हों और इसी प्रकार उग्र हिंसा से उत्पन्न दूसरे पदार्थों का उपभोग यदि मुझे करना हो तो उनमें रहे हुए जीव की हिंसा के दोष में भी मुझे साझीदार होना ही पड़ेगा । किसी भी वस्तु का उपयोग करने से पूर्व कल्याणार्थी मनुष्य को यह विचारना चाहिए कि यह वस्तु अल्पारम्भी या महारम्भी ? अल्पारम्भी वस्तु से वह अपना निर्वाह करे, परन्तु महारम्भी वस्तु का उपयोग न करे । भोगो १. हन्ता पलस्य विक्रेता संस्कर्ता भक्षकस्तथा । क्रताऽनुमन्ता दाता च घातका एव यन्मनुः ॥ योगशास्त्र प्रकाश ३, श्लोक २०. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002971
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorNyayavijay
Author
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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