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________________ द्वितीय खण्ड ११९ पभोग के परिणाम किंवा उससे समुचित नियमन के बिना अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मयर्य एवं अपरिग्रह व्रत का पालन शक्य नहीं है; क्योंकि भोगोपभोग में लुब्ध मनुष्य को अपनी अमर्याद भोगोपभोगतृष्णा को सन्तुष्ट करने के लिये उद्दाम हिंसा का आश्रय लेना ही पड़ता है। असत्य, अन्याय, शोषण आदि पाप भोगोपभोग की उच्छृखल तृष्णा में से उत्पन्न होते हैं और इस बहकी हुई तृष्णा को सन्तुष्ट करने के लिये परिग्रह बढ़ाने में उसे व्यस्त रहना पड़ता है। सभी पाप भोगोपभोग की दुर्दान्त तृष्णा में से पैदा होते हैं। भोग-लालसा का समुचित नियमन वस्तुत: मनोबल का कार्य है ऐसा मनोबली धीर मनुष्य अनेक पापों से बच सकता है तथा उसका अपना जीवनकल्याण अतिसरलता से सिद्ध हो सकता है । संक्षेप में, इस व्रत का सारांश एक ही वाक्य में इस प्रकार कहा जा सकता है। जिसमें बहुत ही अधर्म की सम्भावना हो ऐसे व्यवसायों के त्याग के साथ ही साथ उस प्रकार के भोजनपान, वस्त्र-आभूषण आदि का त्याग करके कम अधर्मवाली वस्तुओं का भी भोग के लिये परिमाण बाँधना भोगोपभोग परिमाण व्रत है । अनर्थदण्ड दुर्ध्यान-वध-बन्धन-ताडन-पीडनरूप-प्राणी-हिंसाविषयक विचार, झूठ-चोरी-अनीति-अन्याय-विषयक विचार, निषिद्ध कामविलास के भोग का विचार और चाहे जिस तरीके से धन का संग्रह करके उसे सुरक्षित रखने का मोहोन्मत्त विचार रौद्र ध्यान है । इसी प्रकार हिंसादि पापों से मिली हुई सिद्धियों के विचारों में आनन्द की अनुभूति भी रौद्र ध्यान है। रौद्र ध्यान प्रबल दुर्ध्यान है, अतः उसमें दुर्ध्यान रूप अनर्थदण्ड का पाप रहा हुआ है । अनर्थदण्ड : प्रमादचर्या-अल्प-आरम्भ (अल्प हिंसा) से उत्पन्न वस्तुओं से व्यक्ति तथा समाज की आवश्यकताएँ यदि बिना किसी विशेष तकलीफ के पूर्ण हो सकती हों तो भी महान आरम्भ (महाहिंसा) से उत्पन्न वस्तुओं का उपयोग करना इसमें प्रमादचर्यारूप अनर्थदण्ड का दोष रहा । अपने व्यक्तिगत सुख-सुभीते की पूर्ति के लिये यदि शक्ति और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002971
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorNyayavijay
Author
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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