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________________ १२० जैनदर्शन होशियारी तथा समय हो तो भी स्वयं श्रम न करके दूसरे नौकर, आश्रित आदि पर उसका भार डालकर स्वयं अकर्मण्य बने रहना यह भी प्रमादचर्यारूप अनर्थदण्ड है । सामायिक का उद्देश समभाव, समता एवं शमभाव विकसित करने में है । (क) समभाव । १. धर्म-समभाव | २. जातपाँत-समभाव । ३. नरनारी - समभाव । (ख) समता १. प्रत्येक जीव को आत्मरूप समझना । २. सम-विषम प्रसंग उपस्थित होने पर मन की स्थिरता कायम रखना, उसे विचलित न होने देना । (ग) शम कषायों को दबाना या उन्हें शिथिल करना । व्रतों के बारे में शास्त्र कहते हैं कि अहिंसा, सत्य आदि व्रतों का व्रती ( सच्चा व्रती ) होने के लिये सर्वप्रथम निःशल्य (शल्यरहित) होने की आवश्यकता है । शल्य संक्षेप में तीन हैं— १. दम्भ, दिखावा अथवा ठगने की वृत्ति, २. भोगों की लालसा, और ३. सत्य पर अश्रद्धा अथवा असत्य का आग्रह | जिस प्रकार शरीर के किसी भाग में शल्य अर्थात् काँटा अथवा वैसी कोई तीक्ष्ण वस्तु चुभ जाय और जब तक दूर न हो तब तक वह शरीर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002971
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorNyayavijay
Author
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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