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जैनदर्शन
होशियारी तथा समय हो तो भी स्वयं श्रम न करके दूसरे नौकर, आश्रित आदि पर उसका भार डालकर स्वयं अकर्मण्य बने रहना यह भी प्रमादचर्यारूप अनर्थदण्ड है ।
सामायिक का उद्देश समभाव, समता एवं शमभाव विकसित करने
में है ।
(क) समभाव ।
१. धर्म-समभाव |
२. जातपाँत-समभाव ।
३. नरनारी - समभाव ।
(ख) समता
१. प्रत्येक जीव को आत्मरूप समझना ।
२. सम-विषम प्रसंग उपस्थित होने पर मन की स्थिरता कायम रखना, उसे विचलित न होने देना ।
(ग) शम
कषायों को दबाना या उन्हें शिथिल करना ।
व्रतों के बारे में शास्त्र कहते हैं कि
अहिंसा, सत्य आदि व्रतों का व्रती ( सच्चा व्रती ) होने के लिये सर्वप्रथम निःशल्य (शल्यरहित) होने की आवश्यकता है । शल्य संक्षेप में तीन हैं—
१. दम्भ, दिखावा अथवा ठगने की वृत्ति,
२. भोगों की लालसा,
और
३. सत्य पर अश्रद्धा अथवा असत्य का आग्रह |
जिस प्रकार शरीर के किसी भाग में शल्य अर्थात् काँटा अथवा वैसी कोई तीक्ष्ण वस्तु चुभ जाय और जब तक दूर न हो तब तक वह शरीर
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