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जैनदर्शन
अर्थात्— कृष्ण आदि वर्ण के द्रव्यों के सान्निध्य से जैसे स्फटिक में वैसे आत्मा में जो परिणाम पैदा होता है उसे 'लेश्या' कहते है ।
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कृष्ण, नील, कापोत वर्ण के द्रव्य अशुभ है तथा तेज, पद्म और शुक्ल वर्ण के द्रव्य शुभ हैं। अशुभों में भी अशुभतम, अशुभतर और अशुभ तथा शुभों में शुभ, शुभतर और शुभतम इस प्रकार अनुक्रम से तारतम्य है । शुभ द्रव्यों के सान्निध्य से पैदा होनेवाली मन के शुभ अध्यवसाय को शुभ लेश्या और अशुभ द्रव्यों के सान्निध्य से पैदा होनेवाले मन के अशुभ अध्यवसाय को अशुभ लेश्या कहते हैं । कृष्णवर्ण के पुद्गलों के सान्निध्य में मन का अथवा आत्मा का जो काला अशुद्धतम परिणाम (अध्यवसाय) उत्पन्न होता है वह कृष्णलेश्या । नीलवर्ण के पुद्गलों के सान्निध्य से उत्पन्न होनेवाला मन का नीलवर्ण जैसा अशुद्धतर परिणाम वह नीललेश्या । कापोत (बेंगन के फूल जैसे) वर्ण के पुद्गलों के सान्निध्य से मन का कापोतरंगजैसा अशुद्ध परिणाम वह कापोतलेश्या । तेजोवर्ण के ( उगते हुए सूर्य जैसे वर्ण के ) पुद्गलों के सान्निध्य में मन का उस वर्ण जैसा जो शुद्ध परिणाम वह तेजोलेश्या । पद्म वर्ण के ( कनेर अथवा चम्पा के फूल जैसे रंग के) पुद्गलों के सान्निध्य में मन का पद्म वर्ण-जैसा जो शुद्धतर परिणाम वह पद्मलेश्या । शुक्लवर्ण के पुद्गलों के सान्निध्य में मन का जो शुक्लरूप शुद्धतम परिणाम वह शुक्ललेश्या' ।
१. आधुनिक वैज्ञानिक खोज में भी यह ज्ञात हुआ है कि मन पर विचारों के जो आन्दोलन होते हैं वे भी रंगयुक्त होते हैं ।
उपर्युक्त, जीवों के आन्तरिक भावों की मलिनता तथा पवित्रता के तरतमभाव का सूचक छह लेश्याओं का विचार जैनशास्त्रों में है, और आजीवकमत के नेता मंखलिपुत्त गोशालक के मन में कर्मों की शुद्धि - अशुद्धि को लेकर कृष्ण, नील आदि छह वर्णों के आधार पर कृष्ण, नील, लोहित, हादि, शुक्ल, परशुक्ल ऐसी मनुष्यों की छह अभिजातियाँ बतलाई गई है । [ बौद्धग्रन्थ अंगुत्तरनिकाय ]
[ इस गोशालक ने श्री महावीर प्रभु की छद्मस्थ अवस्था में उनके शिष्य के रूप में उनका सहचार लगभग छह वर्ष तक रखा था ।]
महाभारत के बारहवें शान्तिपर्व के २८६ वें अध्याय में
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