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________________ २०५ तृतीय खण्ड इस प्रकार सम्यग्दृष्टि, सम्यग्ज्ञान और तदनुरूप सम्यक्चारित्र इन तीनों से मुक्ति प्राप्त होती है। (१६) लेश्या जैनशास्त्रों में निरूपित 'लेश्या' के विषय को देखें । बन्ध-मोक्ष का आधार मुख्यतया मन के भाव ऊपर रहता है, अत: अमुक क्रिया-प्रवृत्ति के बारे में मन के भाव-मन के अध्यवसाय कैसे रहते हैं इस ओर लक्ष देने की आवश्यकता है । मन के अध्यवसाय एक जैसे नहीं होते, नहीं रहते । वे बदलते रहते हैं । कभी काले-कलुषित होते हैं, कभी भूरे से होते हैं, कभी मिश्र, कभी अच्छे, कभी अधिक अच्छे और कभी उच्च श्रेणी के-उज्जवल होते हैं । यह हमारे अनुभव की बात है । मन के इन परिणामों अथवा भावों को 'लेश्या' कहते हैं । स्फटिक के समीप जिस रंग की वस्तु रखी जाय उसी रंग से युक्त स्फटिक देखा जाता है, इसी प्रकार भिन्न-भिन्न प्रकार के संयोग से मन के परिणाम (अध्यवसाय) बदला करते हैं । मनुष्य को जब क्रोध आता है तब उसके मनोगत क्रोध का प्रभाव उसके चेहरे पर कैसा दिखता है ? उस समय उसका चेहरा क्रोध से लाल और विकृत बन जाता है । क्रोध के अणुसंघात का मानसिक आन्दोलन जो उसके चेहरे पर घूम जाता है उसी की यह अभिव्यक्ति है। भिन्न अणुसंघात के योग से मन पर भिन्न-भिन्न प्रभाव अथवा मन के भिन्न-भिन्न परिणाम होते हैं । इसी का नाम लेश्या है। ऐसे अणुसंघात अथवा पुद्गल-द्रव्यों का वर्गीकरण छह प्रकार का किया गया है; जैसे कि कृष्ण वर्ण के, नील वर्ण के, कापोत (बेंगन के फूल जैसे) वर्ण के, पीत वर्ण के (उगते हुए सूर्य के वर्ण के), पद्म वर्ण के (स्वर्ण जैसे वर्ण के) तथा शुक्ल वर्ण के द्रव्य । ऐसे द्रव्यों में से जिस प्रकार के द्रव्य का सान्निध्य प्राप्त होता है उसी द्रव्य के अनुरूप रंगवाला मन का अध्यवसाय भी हो जाता है । इसी का नाम लेश्या । कहा है कि कृष्णादिद्रव्यसाचिव्यात् परिणामो य आत्मनः । स्फटिकत्येव तत्रायं 'लेश्या' शब्दः प्रवर्तते || Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002971
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorNyayavijay
Author
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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