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आठों कर्मों के क्षय से उत्पन्न होने वाले फल की श्रुति है ।
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इस सम्पूर्ण विवेचन का सारांश यह है कि सच्ची समझ और सच्चा आचरण इन दोनों पर ही कल्याणसिद्धि का दारोमदार है । इन दो भूमिकाओं में पहली को सम्यक्त्व अथवा सम्यग्दृष्टि और दूसरी को चारित्र (सम्यक्चारित्र) कहते हैं । इनमें पहली भूमिका मोहनीय कर्म के जिस विभाग का विदारण करने से प्रकट होती है वह 'दर्शनमोह' है और मोहनीय कर्म के जिस विभाग को ध्वस्त करने से दूसरी भूमिका प्रकट होती है वह ' चारित्रमोह' । इस प्रकार जीवन के मूलभूत उच्च तत्त्व - सच्ची (कल्याणभूत) समझ और सच्चा आचरण मोहनीय कर्म के पराभव पर अवलम्बित हैं । अर्थात् मोहनीयकर्म का दृष्टि (दर्शन) का आवारक जो पहला 'दर्शनमोह' नाम का विभाग है वह जितने प्रमाण में हटता है उतने प्रमाण में दृष्टि खुलती है । और जब यह विभाग पूर्णरूप से टूट जाता है तब दृष्टि में पूर्णरूप से प्रकट होती है । दृष्टि के खुलने अथवा प्रकट होने के बाद भी चारित्र के अवरोधों को हटाने का अतिकठिन और प्रखरप्रयत्नसाध्य कार्य अवशिष्ट रहता है । परन्तु दृष्टि के खुल जाने पर यह कार्य जल्दी या देर से अवश्य सिद्ध होता है । मोहनीय कर्म का चारित्ररोधक दूसरा चारित्रमोह' नाम विभाग जितने प्रमाण में हटता है उतने प्रमाण में चारित्र प्रकट होता है और जब यह विभाग पूर्णरूप से हट जाता है तब पूर्ण चारित्र प्रकट होता है । इस प्रकार दर्शनमोह का पर्दा विशीर्ण होने के पश्चात् चारित्रमोह का विनाश होते सम्पूर्ण मोहनीय कर्म समाप्त हो जाता है और उसकी समाप्ति होते ही तुरन्त ही उसके 'सहयोगी दूसरे सभी 'घाती' (आत्मगुण का घात करनेवाले) कर्म नष्ट हो जाते है और आत्मा मुक्त बनता है- शारीरिक जीवन जब तक विद्यमान हो तब तक जीवन्मुक्त और बाद में विदेहमुक्त ।
जैनदर्शन
संक्षेप में आत्मा-सम्बन्धी जब वास्तविक समझ प्रकट होती है तब ' दर्शनमोह' का आवरण दूर होता है जिससे 'सम्यक्त्व' अर्थात् सम्यग्दृष्टि प्राप्त होती है । सम्यग्दृष्टि प्राप्त होने पर ज्ञान सम्यग्ज्ञान बन जाता है, और आगे बढ कर जब आचरण में से असंयम, मोह और कषाय का नाश होता है तब वह चारित्रमोह का नाश होने से उसका फलरूप सम्यकचारित्र प्रकट होता है ।
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