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________________ तृतीय खण्ड २०३ है, उसे उस प्रकार की उपशम श्रेणी कहते हैं । चारित्रमोहनीय की उपशमनक्रिया की धारारूप उपशमश्रेणी अथवा चारित्रमोहनीय की क्षपणक्रिया की धारारूप क्षपकश्रेणी के लिये पूरी तैयारी आठवें गुणस्थान में करके नवें गुणस्थान में आत्मा उस मोह की उपशमन-क्रिया अथवा क्षपणक्रिया करना शुरू करता है । इसमें चारित्रमोहरूप क्रोधादि कषाय और उनके सहचारी तथा उनके पोषक हास्यादि नो-कषायों के उपशमन अथवा क्षपण का प्रारम्भ होता है । नवें और दसवें गुणस्थानों में उपशमक उपशमन का और क्षपक क्षपण का कार्य करता है । यह कार्य जब पूर्ण होने की अवस्था पर पहुँचता है तब दसवें गुणस्थान से आगे इन दोनों साधकों के मार्ग जुदे हो जाते हैं । उपशमक जिस ओर जाता है, जहाँ पहुँचता है वह 'उपशान्त' गुणस्थानक (११वाँ), और क्षपक जिस ओर जाता है, जहाँ पहुँचता है वह 'क्षीणमोह गुणस्थानक (१२वा) । 'क्षीणमोह' आत्मा पूर्ण कृतार्थ होकर पूर्ण आत्मा बनता है, परन्तु 'उपशान्तमोह' आत्मा का मोह उपशान्त ही होने से अर्थात् क्षीण न होने से पुनः अत्यन्त अल्प समय में उदय में आता है जिससे वह आत्मा जैसा चढ़ता था वैसा नीचे गिरता है । नीचे गिरता हुआ कोई आत्मा योग्य भूमि पर अपने को सम्भाल ले और अदम्य आत्मवीर्य प्रकट करके यदि वह पूर्ण उत्क्रान्तिरूप क्षपक श्रेणि का मार्ग ग्रहण करे तो वह तुरन्त ही केवली बन सकता है । अन्यथा यदि उसकी प्रमादवृत्ति बढ़ती जाय तो वह सम्यक्त्व का भी वमन करके पहली मिथ्यात्व की भूमि पर जा गिरता है । आठ कर्मों में से चार 'घाती' कर्मों का झुण्ड साथ ही नष्ट होता है और अवशिष्ट चार कर्म भी (मृत्यु के समय) साथ ही नष्ट होते हैं । आठों कर्मों के क्षय का फल इस प्रकार है ज्ञानावरण के क्षय का फल अनन्त ज्ञान, दर्शनावरण के क्षय का फल अनन्त दर्शन, वेदनीय के क्षय का फल अनन्त सुख, मोहनीय के दो भेंदों में से दर्शनमोह के क्षय का फल परिपूर्ण सम्यक्त्व तथा चारित्रमोह के क्षय का फल परिपूर्ण चारित्र, आयुष्य कर्म के क्षय का फल अक्षय स्थिति, नाम तथा गोत्र इन दोनों कर्मों के क्षय का संयुक्त फल अमूर्त अनन्त आत्माओं की एकत्र अवगाहना और अन्तराय के क्षय का फल अनन्तवीर्य-इस प्रकार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002971
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorNyayavijay
Author
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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