________________
२०२
जैनदर्शन नाममोह जैसा थोडा कतवार भी रहता है । जैसे कि 'अन्य के बनाए हुए देवालयों के देवों की अपेक्षा अपने बनाए हुए देवालय के देव पर उसे अधिक पक्षपात' होता है,' 'देवों में से-देवाधिदेवों में से एक की अपेक्षा दूसरे पर अधिक पक्षपात होता है।' धर्म के बाह्य साधन अथवा प्रणालिका पर, धर्म के नाम पर, उसे मोह-ममता होती है। इतना ही नहीं, इसके लिये वह काषायिक आवेश में भी आ जाता है । नाममोह, कालमोह-प्राचीनता मोह, गुरुमोह, गच्छादिमोह आदि मोह के कतवार के सम्बन्ध से सम्यक्त्वसुलभ समभाव में थोड़ी सी खराबी आ जाने से यह सम्यक्त्व तनिक अशुद्ध बन जाता है । इस प्रकार का सम्यक्त्वी सूक्ष्म विषयक में सन्दिग्ध अथवा शंकाशील होने पर कभी-कभी विकल्पाकुल भी बन जाता है । औपशमिक और क्षायिक सम्यक्त्व में इस प्रकार की अशुद्धि नहीं होती । औपशमिक सम्यक्त्व थोड़े ही समय के लिये और क्षायिक सर्वदा के लिये होता है। शुद्ध आत्मा-परिणामरूप इन दो सम्यक्त्वों के बीच कालमर्यादा का बड़ा अन्तर है । अलबत्ता उपशम एवं क्षय के प्रभाव में भिन्नता होने से दोनों सम्यक्त्वों के बीच तत्त्वदर्शन के प्रकाश में उतना फर्क होगा ही ।
क्षायोपशमिक सम्यक्त्व में विद्यमान आत्मा मिथ्यात्व-मोहनीय और मिश्रमोहनीय इन दो पुंजों का क्षय करते हैं जब सम्यक्त्वमोहनीयरूप शुद्ध पुंज के अन्तिम पुद्गलों को वेदता है तब वह अवस्था है । इस अवस्था को 'वेदक' ऐसा नाम भी दिया गया है। यह अन्तिमपुद्गलवेदन समाप्त होने पर पुंजत्रय का पूरा नाश होने से 'क्षायिक' सम्यक्त्व प्रकट होता है । 'क्षायिक' सम्यक्त्व के प्रकटीकरण को उस प्रकार का क्षपकश्रेणी कहते हैं । इसी प्रकार समग्र दर्शन-मोहसप्तक का उपशमन, जिससे औपशमिक सम्यक्त्व प्रकट होता
१. स्वकारितेऽहंच्चैत्यादौ देवोऽयं मेऽन्यकारिते। __ अन्यस्यायमिति भ्राम्यन् मोहाच्छाद्धोऽपि चेष्टते ॥
-गोम्मटसार, जीवकाण्ड-टीका । २. समेऽप्यनन्तशक्तित्वे सर्वेषामर्हतामयम् । देवोऽस्मै प्रभुरेषोऽस्मा इत्यास्था सुदृशामपि ॥
-गोम्मटसार, जीवकाण्ड-टीका ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org