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तृतीय खण्ड
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४. सांशयिक मिथ्यात्व का अर्थ है देव आदि कल्याणभूत तत्त्वों में सन्देहशील बनना ।
सूक्ष्म विषयों में उच्चकोटि के साधुओं को भी संशय होता है, परन्तु वह मिथ्यात्वरूप नहीं है; क्योंकि अन्त में तो महान् ज्ञानी सत्पुरुष ही प्रमाणरूप होने से ऐसे सूक्ष्म विषयों के प्रश्न उन पर डाल देने से आध्यात्मिक शान्ति में किसी प्रकार की बाधा उपस्थित नहीं होती ।
(५) अनाभोग-मिथ्यात्व का अर्थ है विचार एवं विशेष ज्ञान का अभाव अर्थात् मोह की प्रगाढतम अवस्था । यह मिथ्यात्व एकेन्द्रिय क्षुद्रतम जन्तुओं में तथा विमूढ जीवों में होता है ।
इस प्रकार का मिथ्यात्व दूर होने पर प्राप्त होनेवाला सम्यक्त्व औपशमिक, क्षायोपशमिक अथवा क्षायिक होता है । और इनका स्वरूप हम पहले देख चुके हैं । इन तीनों में औपशमिक सम्यक्त्व अन्तर्मुहूर्त -प्रमाण ही होता है । भव्यात्मा को मुक्ति की प्राप्ति तक अधिक से अधिक पाँच बार उपशम-सम्यक्त्व प्राप्त हो सकता है । सबसे पहले अनादिमिध्यादृष्टि को अनन्तानुबन्धी चार कषाय और मिथ्यात्व के उपशमन से वह प्राप्त होता है । इसके बाद उपशम श्रेणी भवान्त तक अधिक से अधिक चार बार प्राप्त होने से उस समय चार बार उपशम- सम्यक्त्व प्राप्त होता हैं । [ यह उपशम श्रेणी अर्थात् अनन्तानुबन्धी चार कषाय और त्रिविध दर्शनमोहनीय - इन सात के उपशम की क्रिया ।]
क्षायोपशमिक सम्यक्त्व जीव को असंख्य बार प्राप्त हो सकता है कि इसकी जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त की ओर उत्कृष्ट स्थिति किंचित्-अधिक ६६ सागरोपम काल की है ।
क्षायिक सम्यक्त्व होने के बाद फिर नष्ट नहीं होता । संसारवास की अपेक्षा से इसकी जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त की ओर उत्कृष्ट स्थिति किंचित्अधिक ३३ सागरोपम काल की है ।
क्षायोपशमिक सम्यक्त्व में सत्य की उपलब्धि होती है, सत्य पर अथवा मौलिक कल्याणभूत तत्त्वों पर दृढ श्रद्धा होती है, परन्तु साथ ही
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