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बिना सब पक्ष समान हैं ऐसा मानना ।
यह मिथ्यात्व मन्दबुद्धि और परीक्षा करने में असमर्थ ऐसे साधारण मनुष्यों में पाया जाता है। ऐसे मनुष्य प्रायः समझे बिना ही ऐसा बोलते है । (३) आभिनिवेशिक मिथ्यात्व अर्थात् अपना पक्ष असत्य है ऐसा जानकर भी उसकी स्थापना करने के लिये दुरभिनिवेश ( दुराग्रह) रखना ।
जैनदर्शन
जो दुराग्रही न होकर शुद्ध सत्यजिज्ञासु तथा यथार्थ कल्याणकामी है उसकी भी श्रद्धा अपनी बुद्धिमत्ता या विचार - कुशलता के अभाव में अथवा मार्गदर्शक या गुरु की भूल-चूक के कारण विपरीत हो जाती है, फिर भी वह 'आभिनिवेशिक मिथ्यात्वी' नहीं है, क्योंकि वह उक्त सद्गुणों से सम्पन्न होने के कारण उसकी उपर्युक्त कारणों से विपरीत बनी हुई श्रद्धा उसके सम्यक्त्व की अवरोधक नहीं होती' और यथार्थ मार्गदर्शक मिल जाने पर उसकी श्रद्धा यथार्थ बन जाती है ।
श्री सिद्धसेन दिवाकर, श्री जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण आदि आचार्यों ने अपने-अपने पक्ष का समर्थन करके बहुत कुछ कहा है, फिर भी उन्हें आभिनिवेशिक मिथ्यात्वी नहीं कह सकते; क्योंकि उन्होनें अविच्छिन्न प्रावचनिक परम्परा के आधार पर शास्त्र के तात्पर्य को अपने-अपने पक्ष के अनुकूल समझकर अपने - अपने पक्ष का समर्थन किया है, नहीं कि किसी पक्षपात से । इससे विपरीत 'जमालि' आदि ने शास्त्र के तात्पर्य को अपने पक्ष से प्रतिकूल जानकर भी अपने पक्ष का समर्थन किया है । अतः वे 'आभिनिवेशिक कहलाए हैं ।
१. यह बात 'कम्मपयडि' के उपशमनाधिकार की २४वीं गाथा का 'सद्दहई असब्भावं अजाणमाणो गुरुनियोगा' यह उत्तरार्ध स्पष्ट रूप से सूचित करता है । इस पर की टीका में उपाध्याय श्री यशोविजयजी कहते हैं कि
अभिनिवेशरहित मनुष्य मिथ्यादृष्टि के आश्रय से असद्भूत अर्थ में श्रद्धा रखे तो वह उसके स्वाभाविक पारमर्षमार्गश्रद्धान में बाधाकारक नहीं होता अर्थात् उसके सम्यक्त्व को बाधा नहीं आती । परन्तु अभिनिवेशी मनुष्य, स्वपक्ष में हो या परपक्ष में, मिथ्यात्ववाला है ।
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