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तृतीय खण्ड
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कर्मों का क्षयोपशम छोटे जीव-जन्तु में भी होता है, क्योंकि उसमें भी अल्प, अल्पतर या अल्पतम ज्ञानमात्रा अवश्य होती है । जीव का स्वरूप चेतना है, अतः कोई भी जीव ज्ञानशून्य हो ही नहीं सकता । सूक्ष्मतम जीव का घनघोर ज्ञानावरण भी अत्यल्प, अतिसूक्ष्म छिद्र में से तो खुला होता है - खुलारहता है ।
अन्तराय कर्म के क्षयोपशम से अर्थात् दान - लाभ- भोग-उपभोग- वीर्य इन पाँच के प्रतिबंधक अन्तरायों में से जिस अन्तराय का जितना क्षयोपशम होता है उसके अनुसार उस आवरण से आवृत दानकारिता, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य प्राप्त होते हैं ।
मोहनीय कर्म के दो भेदों में से दर्शनमोह के क्षयोपशम से क्षायोपशमिक सम्यक्त्व और चारित्रमोह के क्षयोपशम से क्षायोपशमिक चारित्र प्राप्त होता है ।
सम्यक्त्व की विरोधी मिथ्यात्ववृत्तियाँ कैसी होती है उसे शास्त्रकार पाँच भेदों द्वारा स्पष्ट करते हैं । वे इस प्रकार हैं
(१) आभिग्रहिक मिथ्यात्व अर्थात् तत्त्व की परीक्षा किए बिना किसी एक सिद्धान्त का पक्षपाती बनकर दूसरे सिद्धान्त का खण्डन करना ।
सम्यक्त्वी कभी अपरीक्षित सिद्धान्त का पक्षपात नहीं करता । अतएव जो व्यक्ति तत्त्वपरीक्षापूर्वक किसी एक पक्ष को मान्य रखकर इतर पक्ष का खण्डन करता है वह आभिग्रहिक मिथ्यात्वी नहीं कहा जा सकता । जो कुलाचार मात्र से अपने आपको जैन (सम्यक्त्वी) मानकर तत्त्वपरीक्षा नहीं करता, सदसद्विवेकभाव नहीं रखता, निर्विवेकरूप से 'लकीर का फकीर जैसा है वह भले ही नाम से 'जैन' कहलाए, परन्तु वस्तुतः वह 'आभिग्रहिकमिथ्यात्वी' है ! 'माषतुष मुनि आदि की तरह तत्त्वपरीक्षा करने में स्वयं असमर्थ मनुष्य भी यदि गीतार्थ ( यथार्थ परीक्षाबुद्धिवाले बहुश्रुत) के आश्रय में रहे तो उसकी गणना इस प्रकार के मिथ्यात्वियों में नहीं होती, क्योंकि गीतार्थ के आश्रय में रहने से मिथ्या पक्षपात का सम्भव नहीं रहता ।
(२) अनाभिग्रहिक मिथ्यात्व का अर्थ है गुण-दोष की परीक्षा किए
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