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तृतीय खण्ड
२०७
ये द्रव्य (लेश्या - द्रव्य) मन-वचन- शरीररूप योगों के अन्तर्गत द्रव्य हैं । जिस तरह शरीरगत पित्त क्रोधोद्दीपक होता है और मद्य आदि पदार्थ ज्ञानावरण के उदय में तथा ब्राह्मी आदि पदार्थ उसके क्षयोपशम में हेतुभूत होते हैं— इस तरह योगान्तर्गत और बाह्य द्रव्य भी जैसे कर्म के उदयादि में हेतुभूत होते हैं वैसे योगान्तर्गत लेश्या - द्रव्य जब तक कषाय होते हैं तब तक उनके सहायक और पोषक बनते हैं । इस प्रकार लेश्या कषायोद्दीपक होने पर भी कषायरूप नहीं हैं, क्योंकि अकषायी केवलज्ञानी को भी लेश्याउत्तमोत्तम शुक्ललेश्या होती है । लेश्या मन-वचन- शरीर के योग के परिणामस्वरूप होने से जब तक वे योग रहते हैं तब तक विद्यमान रहती है । इसीलिये सयोग केवली को' भी वह होती है । और योग का सम्पूर्ण निरोध
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षङ् जीववर्णाः परमं प्रमाणं कृष्णो धूम्रो नीलमथास्य मध्यम् । रक्तं पुनः सह्यतरं सुखं तु हारिद्रवर्णं सुसुखं च शुक्लम् ॥६॥
परं तु शुक्लं विमलं विशोक X Xx ।
इन वचनों से छह 'जीववर्ण' बतलाए हैं : कृष्ण, नील, रक्त, हारिद्र, शुक्ल और पद्मशुक्ल ।
महाभारत में जिन छह जीववर्णों का उल्लेख है वे ही छह वर्ण गोशालकमत में बतलाए गए हैं।
पातंजल योगदर्शन के चौथे पाद के
'कर्म अशुक्लाकृष्णं योगिनः, त्रिविधमितरेषाम् ।'
इस सातवें सूत्र में कृष्ण, शुक्लकृष्ण, शुक्ल और अशुक्लाकृष्ण इस प्रकार कर्म के चार विभाग करके जीवों के भावों की शुद्धि - अशुद्धि का पृथक्करण किया है ।
१.
भवस्थ केवलज्ञानी को लेश्या होती है । लेश्या होने से ही मन-वचन-काय की प्रवृत्तियाँ हैं, धर्मप्रभावक और लोककल्याणकारक कार्यकलाप है, शुभ्र और तेजस्वी प्रवृत्तिमय उनका जीवन है । इस पर से जनसमूह के बीच विहरमाण केवली भगवान् की जीवनचर्या का ख्याल आ सकता है । सद्गुणी की ओर उन्हें प्रमोदभाव होता है, प्रसन्नता उत्पन्न होती है और दौर्जन्यपूर्ण व्यवहार करनेवाले शठ की ओर औदासीन्यभाव होता है । दूसरों को समझाने के लिये वे उनके साथ वार्तालाप करते हैं, लोगों का कलह-क्लेश दूर करने के लिये उन्हें समाधान का मार्ग दिखलाते हैं, किसी को आशीर्वाद कहलाते हैं, तो किसी को आश्वासन और प्रोत्साहन प्रदान करते हैं। लोकहित के लिये लोकहित के विरोधी अथवा भिन्नदृष्टिवालों के साथ उन्हें चर्चा भी करनी पड़ती है । इस प्रकार
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