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जैनदर्शन
होने पर अर्थात् 'अयोगी' अवस्था में [निर्वाण के समय] ही उसका अस्तित्व दूर होता है ।
शास्त्राधार के अनुसार (मन-वचन-काय के) योग से प्रकृतिबन्ध तथा प्रदेशबन्ध का कारण है और कषाय स्थितिबन्ध तथा अनुभावबन्ध का कारण है । लेश्या यद्यपि योगपरिणामरूप है फिर भी कषाय के साथ ऐसी ओतप्रोत हो जाती है कि वह भी अनुभावबन्ध के कारणरूप से गिनने में आती है । इतना ही नहीं, उपचार से तो वह कषायरूप भी समझी जाती है ।
लेश्या अर्थात् मानसिक अध्यवसाय को समझने के लिये शास्त्र में उल्लिखित एक दृष्टान्त इस प्रकार है
छह मित्र जामुन खाने के लिये जामुन के पेड के पास गए । उस
ऊपर-ऊपर से वे लौकिक पुरुष जैसे ही लगते हैं। इसीलिये अपरिचित मुमुक्षु साधु-सन्त तथा गौरवाह स्थविर श्रमण भी उन्हें केवली रूप से नहीं जान सकते, क्योंकि केवलित्व अथवा जिनत्वसूचक कोई विशिष्ट बाह्य चिह्न उन्हें नहीं होता अथवा अर्हत्-जिन होने पर प्रकट नहीं होता । जब उनके पास से विशिष्ट ज्ञानसम्पत्ति का परिचय होता है तब ज्ञानदृष्टिवाले सन्त उन्हें अर्हत् अथवा जिनरूप से पहचानने लगते हैं । सामान्य जनता में तो 'नगर में दो जिन-सर्वज्ञ आये हैं' इस प्रकार की बातें फैल सकती हैं-जिस प्रकार श्रावस्ती नगरी में भगवान् महावीरदेव तथा अपने आपको जिन तीर्थंकर कहलानेवाले आजीवकमतप्रस्थापक धर्माचार्य मंखलिपुत्त गोशालक दोनों का निवास था उस समय वहाँ की जनता में फैली थी । भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा के स्थविर श्रमण भगवान् महावीर के पास आते हैं, परन्तु उन्हें वन्दन किए बिना ही थोड़ी दूर पर खड़े रहकर प्रश्न पूछते हैं और जब उन स्थविरों को अपने प्रश्नों के उत्तर सन्तोषप्रद मिल जाते हैं तब वे भगवान् महावीर को सर्वज्ञरूप से पहचानने लगते हैं और इस तरह पहचान होने के पश्चात् भक्तिपूर्ण हो कर उन्हें विधिपूर्वक वन्दन करते हैं। इस बात का उल्लेख श्री भगवतीसूत्र के पाँचवे शतक के नवें उद्देश में है' । इसी प्रकार इस सूत्र के नवें शतक के बत्तीसवें उद्देश में भगवान पार्श्वनाथसन्तानीय 'गांगेय' नामक स्थविर श्रमण की बात आती है। .
★ 'तेणं कालेणं तेणं समएणं पासावच्चिज्जा थेरा भगवंतो जेणेव समणे भगवं
महावीरे तेणेव उवागच्छन्ति, समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूरसामंते ठिच्चा एवं वयासी xxx । तप्पभिति ते पासावच्चिज्जा थेरा भगवंतो समणं भगवं महावीरं पच्चभिजाणंति-सव्वन्नू, सव्वदरिसी, xxx वंदंति नमसंति ।'
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