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तृतीय खण्ड
२०९ में एक ने कहा, "अरे यार ! मूल के साथ ही पेड़ को काट कर नीचे गिरा दो । बाद में आराम से जामुन खाने का मजा आयगा ।" [यह अध्यवसाय कृष्ण लेश्या है ।] दूसरे ने कहा, "नहीं भाई, पेड़ को क्यों काटना ? बड़ी-बड़ी शाखाओं को ही काट डालो ।" [यह अध्यवसाय नीललेश्या है ।] तीसरा बोला, "बडी शाखाएँ क्यों काटना ? जामुन तो इन छोटी-छोटी टहनियों पर हैं । इसलिये वे ही तो तोड़ो ।” [यह अध्यवसाय कापोतलेश्या है ।] चौथे ने कहा, 'तुम्हारा यह तरीका गलत है । सिर्फ फल के गुच्छों को ही तोड़ लो जिससे हमारा काम हो जायेगा ।" [यह अध्यवसाय तेजोलेश्या है ।] पाँचवे ने कहा, "तुम ठीक नहीं कहते । यदि हमें जामुन ही खाने हैं तो पेड़ पर से जमुन तोड़ लो ।" [यह अध्यवसाय पद्मलेश्या है ।] इस पर छठा मित्र बोला, "भाइयों, यह सब झंझट छोडो । यहाँ नीचे जमीन पर पके हुए जामुन पड़े हैं । इन्हीं को उठाओ ।" [यह अध्यवसाय शुक्ललेश्या है ।]
कार्य तो एक ही है जामुन खाने का, परन्तु उसकी रीति-नीतिविषयक भावनाओं में जो भिन्नता हैं, अथवा जो भिन्न-भिन्न अध्यवसाय है वे ही भिन्नभिन्न लेश्याएँ हैं ।
द्रव्य-लेश्या और भाव-लेश्या इस प्रकार लेश्या के दो भेद हैं । द्रव्य-लेश्या, ऊपर कहा उस तरह, पुद्गलविशेष रूप है । भावलेश्या संक्लेश
और योग का अनुसरण करनेवाला आत्मा का परिणामविशेष है । संक्लेश के तीव्र, तीव्रतर, तीव्रतम अथवा मन्द, मन्दतर, मन्दतम आदि अनेक भेद होने से वस्तुतः भावलेश्या असंख्य प्रकार की है, फिर भी संक्षेप में उसके उपर्युक्त छह विभाग शास्त्र में बतलाए हैं ।
पहली तीन लेश्याओं में अविवेक और अन्तिम तीन लेश्याओं में विवेक रहा हुआ है । प्रथम लेश्या में अविवेक और अन्तिम लेश्या में विवेक पराकाष्ठा पर पहुँचा हुआ होता है । पहली तीन लेश्याओं में अविवेक की मात्रा उत्तरोत्तर घटती जाती है, जबकि अन्तिम तीन लेश्याओं में विवेक की मात्रा उत्तरोत्तर बढती जाती है। पहली तीन लेश्याओं में निबिड़, पापरूप बन्धन क्रमशः होता जाता है, जबकि अन्तिम तीन लेश्याओं में पुण्यरूप कर्मबन्ध
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