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जैनदर्शन
की अभिवृद्धि होती जाती है तथा पुण्यरूप निर्जरा का तत्त्व उत्तरोत्तर बढ़ता जाता है। (१७) कार्यकारणसम्बन्ध :
किसी भी कार्य की उत्पत्ति के साथ कारण के सम्बन्ध को कार्यकारणसम्बन्ध कहते हैं । इसे समझने के लिये घड़े का उदाहरण लें ।
न्यायशास्त्र का नियम है कि 'जानाति, इच्छति, ततो यतते' अर्थात् मनुष्य पहले जानता है, पीछे इच्छा करता है और उसके बाद उसके लिये प्रयत्न करता है । इस प्रकार घड़ा बनाने की जानकारी रखनेवाले कुंभार में घड़ा बनाने की इच्छा उत्पन्न होती है और इच्छा के बाद प्रवृत्ति होती है । घड़ा बनाने के लिए तैयार हुए कुम्भार की कल्पना में घड़े की अपनी पसन्दगी की आकृति अंकित होनी चाहिए, उसे जो कार्य उत्पन्न करने का है उसकी उत्पत्ति की प्रक्रिया भी उसे ज्ञात होनी चाहिए । और उस कार्य का समुचित ख्याल भी उसे रहना चाहिए । अन्यथा एक के बदले दूसरा ही हो जाय-घड़े के बदले पुरवा बन जाय ।
इस घटोत्पत्ति के कार्य में कर्ता कुम्भार है; क्योंकि वह स्वाधीनतापूर्वक (Voluntarily) कारणों का अवलम्बन लेकर अपनी ज्ञानेन्द्रियों, कर्मेन्द्रियों तथा मनोयोग द्वारा [इन इन्द्रियों तथा मनरूप स्वयंप्राप्त कारणों की सहायता से] क्रिया करके कार्य उत्पन्न करता है ।
कार्य के उत्पादन में कुंभार को कारणों की (बाह्य साधनों की) अपेक्षा रहती है; क्योंकि 'कारण के बिना कार्य नहीं होता ।' जब किसी कार्य को देखते हैं तब वह किस प्रकार बनने पाया इसकी खोज करने की तथा उसे समझने की आकांक्षा होती है; और जब हमारे मर्यादित अनुभव के अनुसार हमें उस कार्य के कारण की खबर नहीं पड़ती तब उसे चमत्कार कह कर सन्तोष मान लेते हैं अथवा कोई अदृष्ट कारण बताकर मन मना लेने का प्रयत्न करते हैं; किन्तु वह अदृष्ट क्या है और वह किस प्रकार कार्य करता है उसका तो हमें कुछ भी ख्याल नहीं होता और उसके बारे में गहरी जाँचपड़ताल करने के लिए असमर्थ होने से हम चुप्पी साध लेते हैं । यहाँ
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