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तृतीय खण्ड
२११ पर हमें यह कहना पड़ेगा कि आधुनिक विज्ञान ने चमत्काररूप मानी जानेवाली अनेक घटनाओं तथा कार्यों के कारणों की खोज करके युक्तियुक्त रूप से उन्हें समझाने में सफलता प्राप्त की है। और जैसे-जैसे विज्ञान आगे बढ़ेगा वैसे-वैसे अभी तक चमत्काररूप मानी जानेवाली अनेक घटनाओं का विशेष खुलासा मिलता जायगा । परन्तु जब मनुष्य को किसी घटना के कारणों की खोज में कुछ सन्तोषप्रद खुलासा नहीं मिलता तब उसे चमत्कार मानकर वह किसी साधुपुरुष की तथाकथित सिद्धि के साथ अथवा किसी मति आदि अद्भुतता के साथ सम्बन्ध स्थापित कर देने को ललचाता है । इसमें बहुत अंशों में वहम का ही प्राधान्य होता है और ऐसे अनेकविध वहम लोगों में प्रचलित है—इसका स्वीकार किये बिना दूसरा चारा ही नहीं है । ऐसा प्रतीत होता है कि विज्ञान की भौतिक दिशा के साथ-साथ यदि आध्यात्मिक दिशा की ओर भी विशेष संशोधन हो तो बहुत सा सन्तोषप्रद खुलासा हो सकेगा । परन्तु हमें यह समझ लेना चाहिए कि वहम अथवा विभ्रम का वातावरण जब तक बना रहेगा तब तक आगे प्रगति होनी कठिन है। किसी घटना का कारण हमारी बुद्धि से अगम्य हो तो वैसा मानकर बैठे रहना उत्तम है, परन्तु उस घटना का सम्बन्ध चाहे-किसी के साथ केवल कल्पना द्वारा जोड़ देना अनुचित है, क्योंकि इसी से वहमों की परम्परा का उदय होता है।
कुंभार जानता है कि घड़ा मिट्टी की खदान में से लाई हुई चिकनी मिट्टी का बनता है, इसलिये वैसी मिट्टी लाकर, उसे साफ कर उसमें पानी डालकर और बराबर गूंधकर मुलायम पिण्ड बनाता है । वह मिट्टी का पिण्ड का ही क्रिया के अन्त में घड़ा बनता है । इसीलिये मिट्टी को घड़े का उपादानकारण कहा जाता है । घड़े के लिए मिट्टी को जिस तरह उपादानकारण कहते हैं उसी तरह 'परिणामी कारण' के नामसे भी उसका व्यवहार होता है, क्योंकि स्वयं मिट्टी ही घटरूप से परिणत होती है । अवग्रह ईहारूप से, ईहा अवायरूप से, अवाय धारणारूप से और धारणा [संस्कार] स्मृतिरूप से परिणत होते हैं, इसलिए पूर्व-पूर्व उत्तर-उत्तर का परिणामी कारण है ।
अब, कुम्भार को घडा बनाने की क्रिया में साधन भी चाहिए ।
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