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________________ २१२ जैनदर्शन इसलिये वह चक्र, दण्ड आदि भी इकट्ठे करता है । क्योंकि वह जानता है। कि दण्ड से चक्र को घुमा कर उसकी सहायता से यदि क्रिया की जाय तो कार्य बहुत सरलता से सम्पन्न होगा । अतः वह उनका उपयोग करता है । इस प्रकार कार्य की साधना में उपयोगी होनेवाले बाह्य साधन निमित्तकारण कहलाते हैं— जैसे कि दण्ड आदि । जो जिसमें पूरेपूरा उतर आए वह उसका उपादान - कारण है । मिट्टी घड़े में उतर आती है (घड़े के रूप में परिणत होती है), अतः मिट्टी घड़े का उपादानकारण है । तन्तु पट में समग्रभाव से आ जाते हैं (पटरूप से परिणत होते हैं ), अतः तन्तु पट का उपादानकारण हैं । सोना कटक, कुण्डल आदि में उतरता है ( कटकादि रुप से परिणत होता है), अतः सोना कटकादि का उपादानकारण है । और इस प्रकार उपादान को कार्य में परिणत करने में जो व्यापक रूप से आवश्यक साधन (उपकरण) होते हैं उन्हें 'निमित्तकारण' कहते हैं । ये निमित्तकारण कार्य की साधना में सीधे सक्रिय संयोग से सम्बद्ध होते हैं । इस प्रकार की निमित्तकारण की विशेषता है । घट के लिये दण्डादि निमित्तकारण ऐसे ही हैं 1 इस तरह घड़े की निष्पत्ति में कुम्भार मिट्टी उपादानकारण है और दण्ड आदि निमित्तकारण हैं । किसी भी कार्य की निष्पत्ति में ये तीन ( त्रिपुटी) मुख्य और प्रधान से आवश्यक हैं । कार्य-साधन की क्रिया के समय साधनों के साथ बैठने-उठने के लिये अनुकूल खुले आकाश (अवकाश) वाली जमीन के अपेक्षित होने से वे (जमीन, आकाश) अपेक्षाकारण हैं । आकाश को कहीं लेने जाना पड़ता है ? नहीं । वह सर्वत्र विद्यमान है । वह न हो तो कोई कार्य ही नहीं हो सकता, परन्तु वह न हो यह बात ही असम्भव है । अतः साक्षिभाव की अपेक्षा से वह भी अपेक्षाकारण माना जा सकता है। आकाश की भाँति जमीन सर्वत्र नहीं होती और आकाश की अपेक्षा वह अधिक सुविधारूप है, फिर भी उसकी सुलभता और कार्यसिद्धि के लिये उपयोगिता की मात्रा की अपेक्षासे वह भी अपेक्षाकारण मानी गई है । सब कार्यों में किसी भी तरह सहजभाव से उपस्थित अथवा विद्यमान रहकर साधारणतया जो सर्वसामान्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002971
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorNyayavijay
Author
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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