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तृतीय खण्ड
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योग देनेवाला हो उसे 'अपेक्षाकारण' कहते हैं । इस प्रकार के कारण के निर्देश को सहजसिद्ध उपयोगी तत्त्व का अथवा अपेक्षित बाह्य सुविधा का निर्देश कह सकते हैं । अपेक्षाकारण भी निमित्तकारण ही कहा जा सकता है, क्योंकि निमित्तकारण के मुख्य दो भेद हैं : एक तो कार्यसिद्धि में व्यापक रूप से आवश्यक, सक्रिय सीधा योग देनेवाला और दूसरा आकाश आदि की भाँति केवल साक्षि - भाव से अथवा कर्त्ता आदि की सुविधा के रूप में जिसकी उपस्थिति आवश्यक हो वह । जिसके बिना चल सके फिर भी उसका योग यदि मिल जाय तो वह उस कार्य में कमीवेश उपयोगी हो सके ऐसा जो हो वह आगन्तुकनिमित्त कहा जा सकता है ।
कुम्भार को मिट्टी लाने में गदहा भी काम में आता है, फिर भी दण्डचक्र की श्रेणी का कारण (निमित्तकारण) वह नहीं गिना जा सकता । ऐसे पदार्थ कार्य की सिद्धि में उपयोगी होने पर भी उन्हें 'अन्यथासिद्ध" कहा है अथवा अधिक से अधिक आगन्तुककारण कह सकते हैं ।
कुम्भार दण्ड चक्र आदि साधनों द्वारा मिट्टीरूप उपादान में जब घड़ा बनाता है तब मिट्टी के पिण्ड में से एकदम घड़ा नहीं बन जाता । परन्तु क्रिया के समय उस पिण्ड में से एक के बाद दूसरी ऐसी अनेक आकृतियाँ उत्पन्न होती है । इन भिन्न-भिन्न आकृतियों अथवा स्थितियों में से गुजरने के बाद ही अन्त में घड़ा बनता है । घड़े के उत्पत्ति से पूर्व की इन भिन्नभिन्न स्थितियों में पूर्व की स्थिति बाद की स्थिति का कारण ( उपादान) है और बाद की स्थिति पूर्व की स्थिति का कार्य है । इस कार्यकारणपरम्परा की श्रृंखला पर से यह समझ में आ सकता है कि विकास क्रमिक होता है । घटरूप कार्य की ओर बहनेवाली अनेक स्थितियों में से गुजरने के बाद अन्त में घड़ा बनता है, अनेक स्थितियों में से व्यतीत होने के पश्चात् फूल
१.
न्याय-वैशेषिक दर्शन की प्रक्रिया के अनुसार गदहा, आकाश आदि को 'अन्यथासिद्ध' कहा गया है- " तृतीयं तु भवेद् व्योम x x x पञ्चमो रासभादिः स्यात् " [कारिकावली, २२] । इसके अनुसार कार्य सिद्धि में (कार्यसिद्धि से पूर्व ) जो साक्षात् व्यापारशील होकर व्यापक रूप से आवश्यक हो उसी की गणना 'कारण' की (निमित्तकारण की) कोटि में की जा सकती है । इसके अतिरिक्त दूसरे सब 'अन्यथा सिद्ध' हैं ।
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