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जैनदर्शन
(४) अविरतिसम्यग्दृष्टि—विरति बिना के सम्यक्त्व (सम्यग्दर्शन) को अविरतिसम्यग्दृष्टि कहते हैं । सम्यक्त्व के स्पर्श के साथ ही भवभ्रमण के काल की मर्यादा नियत हो जाती है । अतः आत्मविकास की मूल आधारभूमि यह गुणस्थान है।
इस प्रसंग पर मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टि के बीच का अन्तर भी जरा देख लें । मिथ्यादृष्टि में धार्मिक भावना नहीं होती । सब प्राणियों के साथ एकता अथवा समानता का अनुभव करने की सवृत्ति से वह शून्य होता है । दूसरे के साथ का उसका सम्बन्ध स्वार्थ का अथवा बदला लेने का ही होता है । सम्यग्दृष्टि धार्मिक-भावनाशील और आत्मादृष्टियुक्त होता है । आत्मकल्याण की दिशा में वह यथाशक्ति प्रवृत्त रहता है । जैसी मेरा आत्मा है, वैसी ही दूसरे की भी है--ऐसी उसकी श्रद्धा होती है । आसक्तिवश अपने स्वार्थसाधन के लिये यदि वह दूसरे के हित का अवरोध करने का दुष्कृत्य शायद करे तो भी यह अनुचित है ऐसा उसकी अन्तरात्मा में चुभा करता है । इसके लिये उसे पश्चात्ताप भी होता है । काम-क्रोधादि दोष और पापाचरण कम हों ऐसी उसकी मनोभावना होने से तदनुसार वह यथाशक्ति अपना बरताव रखता है । इससे विपरीत धार्मिक दृष्टि से जो पाप समझा जाता है उसे मिथ्यादृष्टि पाप ही नहीं समझता । भौतिक सुख की प्राप्ति के पीछे वह मस्त हो जाता है
और इसके लिये उचित-अनुचित कोई भी मार्ग ग्रहण करने में उसे पापपुण्य का भेद ग्राह्य नहीं होता । वह पापमार्ग को पापमार्ग न समझ कर 'इसमें क्या ?' ऐसी स्वाभाविकता से उसे ग्रहण करता है । मिथ्यादृष्टि यदि किसी का भला करता हो तो वह स्वार्थ, पक्षपात अथवा कृतज्ञता के कारण ही करता है; जबकि सम्यग्दृष्टि इनके अतिरिक्त स्वार्पणभावना के सात्त्विक तेज से भी सम्पन्न होता है । उसमें अनुकम्पा एवं बन्धुभाव की व्यापक वृत्ति होती है ।
(५) देशविरति-सम्यग्दृष्टिपूर्वक गृहस्थ-धर्म के व्रतों का यथायोग्य पालन करना 'देशविरति' है । 'देशविरति' शब्द का अर्थ है सर्वथा नहीं किन्तु देशतः अर्थात् अंशतः निश्चितरूप से पापयोग से विरत होना । देशविरति
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