________________
द्वितीय खण्ड है । सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के पश्चात् भी यदि क्रोधादि परम तीव्र ('अनन्तानुबन्धी') कषायों का उदय हो तो सम्यक्त्व से गिरना ही होता है । यह गुणस्थान ऐसी गिरने की अवस्थारूप है—सम्यग्दर्शन से अज्ञान-मोह में अथवा मिथ्यात्व में गिरनेरूप है । जब गिरने ही लगे तब गिरने में कितनी देर ? इसीलिये यह गुणस्थान क्षणमात्र का है । 'उपशम' सम्यक्त्व से गिरनेवाले के लिये ही यह गुणस्थान है।
(३) मिश्र गुणस्थान-सम्यक्त्व एवं मिथ्यात्व इन दोनों के मिश्रणरुप आत्मा के विचित्र अध्यवसाय का नाम मिश्र गुणस्थान है।
जब किसी जीव को सत्य का दर्शन होता है तब वह आश्चर्यचकित सा रह जाता है । उसके पुराने संस्कार उसे पीछे की ओर घसीटते हैं और सत्य का दर्शन उसे आगे बढ़ने के लिये प्रोत्साहित करता है । ऐसी दोलायमान अवस्था कुछ समय के लिये ही होती है। बाद में या तो वह मिथ्यात्व में जा गिरता है अथवा सत्त्व को प्राप्त करता है । इस गुणस्थान में 'अनन्तानुबन्धी' कषाय न होने के कारण उपर्युक्त दोनों गुणस्थानों की अपेक्षा यह गुणस्थान ऊँचा है । परन्तु इसमें विवेक की पूर्ण प्राप्ति नहीं होती, सम्यक्त्व एवं मिथ्यात्व का मिश्रण होता है अर्थात् सन्मार्ग के बारे में श्रद्धा भी नहीं और अश्रद्धा भी नहीं ऐसी डाँवाडोल स्थिति होती है अथवा सत् और असत् दोनों ओर झुकनेवाली या दोनों के बारे में मिश्रित जैसी श्रद्धा होती है।
होने से 'आ-सादन' कहलाते हैं । उनसे युक्त वह “सासादन' । “सीदन्ति मम गात्राणि" आदि प्रयोगों के अनुसार 'सद्' धातु का अर्थ शिथिल होना-ढीला पड़ना होता है । 'सादन' यह इस धातु का प्रेरक कृदन्त रूप है । अत: 'सादन' अर्थात् शिथिल करना अथवा शिथिल करनेवाला । 'सादन' के आगे लगा हुआ 'आ' उपसर्ग इसी अर्थ की वृद्धि सूचित करता है । इस प्रकार 'आ सादन' से अर्थात् गिरानेवाले से अर्थात् सम्यक्त्व को गलानेवाले क्रोधादि कषाय से युक्त वह (स+आसादन) सासादन । मतलब कि 'सासादन' गुणस्थानभूमि तीव्र क्रोधादिकषायोदयरूप होने से पतन करानेवाली है—सम्यग्दृष्टि को रफादफा करनेवाली है ।
इस गुणस्थान का 'सास्वादन' ऐसा भी एक दूसरा नाम है । इसका अर्थ है आस्वादयुक्त अर्थात् वमन किए जानेवाले सम्यक्त्व के आस्वाद से युक्त ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org