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जैनदर्शन
गुणस्थान की कल्याणकारक सद्गुणों के प्रकटीकरण की प्राथमिक भूमिकारूप होने पर भी उसका 'मिथ्यात्व' के नाम से जो निर्देश किया है इसका कारण यह है कि इस भूमिका में यथार्थ 'सम्यग्दर्शन प्रकट नहीं हुआ होता । इस गुणस्थान में सम्यग्दर्शन की भूमि पर पहुँचने के मार्गरूप सद्गुण प्रकट होते हैं, जिससे इस अवस्था का 'मिथ्यात्व' तीव्र नहीं होता । फिर भी मन्दरूप से 'मिथ्यात्व' विद्यमान होने से इस प्रथम गुणस्थान को मिथ्यात्व कहा गया है; और साथ ही, सम्यग्दर्शन की ओर ले जाने वाले गुणों के प्रकटीकरण की यह प्रथम भूमिका होने से इसे 'गुणस्थान' भी कहा है।
आचार्य हेमचन्द योगशास्त्र के प्रथम प्रकाश के १६वें श्लोक की वृत्ति में 'गुणस्थानत्वमेतस्य भद्रकत्वाद्यपेक्षया' इस वचन से स्पष्ट कहते हैं कि मिथ्यादृष्टि को जो 'गुणस्थान' कहा गया है वह भद्रता आदि गुणों के आधार पर (इन गुणों की अपेक्षा से) कहा गया है ।
इस प्रथम "मित्रा' दृष्टि तक भी जो नहीं पहुँचे हैं उन छोटे-बड़े सब अधःस्थित जीवों की भी गणना शास्त्रों ने मिथ्यात्व गुणस्थान में की है । इन सबकी मिथ्यात्व भूमिका को 'गुणस्थान' के नाम से निर्दिष्ट करने का कारण यह है कि मिथ्यात्वी जीव भी मनुष्य, पशु, पक्षी, आदि को मनुष्य, पश. पक्षी आदि रूप से जानता है और मानता भी है, इस प्रकार की अनेक वस्तुओं के बारे में उसे यथार्थ बुद्धि होती है । इसके अतिरिक्त शास्त्र यह भी कारण बतलाते हैं कि सूक्ष्म-अतिसूक्ष्म जीवों में भी जीवस्वभावरूप चेतनाशक्ति, फिर वह चाहे अत्यन्त अल्प मात्रा में ही क्यों न हो, अवश्य होती है । अन्य कारण यह भी बतलाया जा सकता है कि जिस अधःस्थिति में से ऊपर उठने का है उस अध:स्थिति का, वहाँ से ऊपर उठने की शक्यता अथवा सम्भव की दृष्टि से [वह स्वयं भले ही गुणस्थान न हो, परन्तु गुण के लिये होनेवाला उत्थान तो वहीं से होता है इस दृष्टि से] 'गुणस्थान' के नाम से निर्देश किया गया है ।
(२) सासादन' गुणस्थान सम्यग्दर्शन से गिरने की अवस्था का नाम
१. 'अनन्तानुबन्धी' (अतितीब्र) क्रोधादि कषाय सम्यग्दृष्टि को शिथिल करनेवाले (आवारक)
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